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ज़िन्दगी की राहों में चलना आसान नहीँ,
सलीके से उन रास्तों पर मुझे चलना नहीँ आता।

भयानक रूप से पेश आता है हर शख़्स,
मुखौटे को हटाकर किसी को पहचानना नहीँ आता।

सफ़र नामुमकिन है, कहते हैं हमेशा मुझे,
सही और ग़लत का चुनाव करना नहीँ आता।

लोग कहते हैं बन गया है मेरा दिल पत्थर का,
इसलिए इसको अब बेवज़ह पिघलना नहीँ आता।

खुशनुमा नज़ारों से भरी हुई है कायनात-जहाँ,
ख़ुबसूरती का वज़ूद को हमें तरासना नहीँ आता।

ख़ामख़ाँ और बेवजह बदनाम करते सबको,
मुझको कोई भी रिश्ता सही से निभाना नहीँ आता।

दिल की गहराई में उतर समझा ना ज़ज़्बात,
उलझकर ख़ुद से, ख़ुद को सुलझाना नहीँ आता।

बावस्ता हो चला ज़िन्दगी का कल्मा-ए-हयात,
ख़ुदा का वास्ता देकर खुशियांँ पढ़ना नहीँ आता।

क्यों हो रहा है अदला बदली यह मौसम में,
बदलते ऋतुएं संग मुझे तो बदलना नहीँ आता।

ड़र की डोर संग बंधी हुई स़ब से शब तलक,
इल्ज़ामात से ख़ुद को अब बचाना नहीँ आता।

गुरूर दिखा रहा है मर्दानगी औरत के सामने,
बरत ऐतिहाद, नासाज़ तरतीब को रोकना नहीँ आता।

जवाब माँग रहा है दुनिया सर-ए-बाजार में,
क्या ही कहें, मुझे कुछ ग़लत करना नहीँ आता।

एहतराम से मिलते लम्हों में जी ले ये "मुद्रा",
कि, संजीदगी से कायनात से मुखातिब होना नहीँ आता।

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