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फ़किरों सी फिदरत, सहरा का सफर , 
और वीरानियां मुस्तकबिल थी। 

भटकता रहता था दरख़्त की छाव के लिए, 
बनती नहीं थी मेरी, उन दिनों फलक से।

तीरगी से खौफ था, चरागों से नाराजगी , 
मगर ना था मैं अकेला, जुगनुओं से दोस्ती थी। 

मयस्सर खामोशी थी, मगर चीखने की भी तलब थी, 
तलब ये बड़ी गजब थी, मगर बे-सबब थी। 

लबों को लगी प्यास थी, सामने सराब थी, 
अब्र से इल्तिजा,किसी दरिया की तलाश थी। 

परिंदों को मालूम था पता, मगर जानता नहीं था मैं उनकी जुबां, 
खुदा से एक सवाल था, आईने में जवाब था। 

सकूं की तलाश थी, मंजिल से अनजान था, 
अकेला था, नहीं, गुफ्तगू के लिए साया साथ था। 

फिर इक दिन मुलाकात हुई खुद से, सफर पूरा हुआ, 
सहर हुई और आंख खुली, बड़ा हसीं ख्वाब था। 

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