मेरी ये कविता समाज पर एक व्यंग है की कैसे हम एक रेप होने के बाद उस निर्भया को इंसाफ दिलाने के लिए और उसके साथ खड़े हैं यह एहसास दिलाने के लिए कैंडल लेकर रास्तों पर निकल जाते हैं एक पूरी भीड़ के साथ । बिना यह सोच कि शायद उस कैंडल से उस एक निर्भया को तो इंसाफ मिल जाए पर क्या यह कैंडल लड़कियों को निर्भय बनने से रोक पाएगा??? और जब वास्तविकता को हम देखते हैं तो पता चलता है की ये "कैंडल जलाने वाले निर्भया बनाने वाले हैं।"
एक कैंडल, जिसे लेकर निकला था साथ मैं
सोचा था कि ये निर्भया के साथ जलेगा,
दिलाने के बाद ही इंसाफ ये दीपक बूझेगा।
यू लोगों की भीड़ जोड़ी मैंने,
उस एक से हजारों कैंडल जलाये मैंने
लग रहा था मुझे, ये उजाला सब अंधेरा मिटा देगा
बहुत हो गई ये दरिंदगी,
अब ये कैंडल ही उस रात की फिर सुबह कराएगा।
बहुत भरोसा था मुझे, इस उजाले पर
साथ चल रहे लोगों की आवाजों पर।
अगले पहर जब नींद खुली
तो सब तरफ उजाला था।
हालांकि, कैंडल बुझ चुके थे सारे
पर ना कोई अंधेरा था।
लगा कि हमारी भीड़ ने कुछ काम कर दिखाया,
हमारी आवाज ने उस निर्भया को इंसाफ दिलाया।
अब फिर से मैं चला अपने घर के रास्ते,
पूरा बोरिया बिस्तर लेकर अपने साथ में।
पर पता नहीं क्यों इस उजाले में भी चीखे सुनाई दे रही थी,
मां बहन की गलियां हर किसी को सरेआम दी जा रही थी।
ऐसा ना करो, मुझे छोड़ दो, जाने दो
की आवाजें खूब आ रही थी।
जब मुडा पीछे तो लाखों लड़कियां रास्ते में पड़ी थी,
कोई कोई तो फंदे पर भी लटकी दिखी थी!
जब उन दरिंदो को देखा,
तो याद आया, कि ये तो थे मेरे साथ मे...
हां उसी दिन, जिस दिन मैं लेकर निकला था कैंडल अपने हाथ में।