परिचय
बिते दिनो सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुई जिसमे महेंद्र सिंह धोनी एयरोप्लेन पर सो रहे थे, ये वीडियो एक महिला द्वारा बनाई गई और उस महिला ने इस वीडियो को अपने इंस्टाग्राम पर पोस्ट किया। ये एकमात्र घटना नही है, बल्कि इससे पहले भी महेंद्र सिंह धोनी की वीडियो कैंडी क्रश (एक डिजिटल गेम) खेलते हुए पोस्ट की जा चुकी थी ।
अब इसी परिथिति को हम एक बार फिर सोच कर देखते है और इस बार लडकी को कैमरे के पीछे नहीं बल्कि उसे कमरे के आगे रखकर देखते है और साथ ही कोई लड़का बिना उस लड़की से अनुमति अनुमति लिए उसकी वीडियो बना रहा हो और उसे सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दे!
अब ये परिस्तिथि हमे कुछ गलत दिखाई देने लगेगी और इसका एक मात्र कारण ये है की हमारे समाज में निजता का अधिकार ( right to privacy) केवल तब तक होता है जब लड़की कैमरे के आगे हो और कोई लड़का उसकी वीडियो बनाए। ये तो बस एक छोटा सा उदहारण मात्र ही है, इसके अलावा ऐसे बहुत सारे मामले है जिसमें लड़के और लड़की एक ही कार्य कर रहे होते है पर अगर ये बात कानून तक पहुंचे तो हमारा न्यायालय एक को बेगुनाह पाता है तो दूसरे को दोषी करार देता है। इसका सबसे अच्छा उदहारण वर्तमान में हुई एक घटना से देखा जा सकता है जहा दिल्ली की मेट्रो में एक लड़की अभद्र और अशोभनीय कपड़े पहन कर आई थी जो सामाजिक दृष्टि से बेशक ही अनैतिक आचरण को प्रदर्शित करता है, बहुत से लोग ऐसे भी थे जिन्होंने उस लडकी का विरोध किया। ऐसा ही एक और मामला पटना से तेजस जा रही ट्रेन में देखा गया जहा एक पुरुष कच्छा बनियान पहन कर रात को ट्रेन के भीतर टहल रहा था ठीक दिल्ली मेट्रो में सवार महिला के भाती, ये भी सामाजिक दृष्टि से ये अनैतिक ही है।
अगर हम दोनो परिस्थितियों पर गौर करे तो हमे ज्ञात होता है की ये दोनो घटनाए एक जैसी ही है क्योंकि दोनों ने ही सामाजिक परिवेश को बिगड़ा है
पर हमारा कानून जो लैंगिक समानता की बात करता है उसने जहा एक और लड़की को बेगुनाह बताया तो वही इस पुरुष को दोषी करार देते हुए 2 साल की सजा सुना दी।
लैंगिक असमानता शब्द को हम अक्सर महिलाओ से जोड़ कर देखते है क्योंकि प्राचीन काल से ही हमारे समाज में कुछ ऐसी परिथितिया देखी गई है जिसमे महिलाओ को पुरुषो की अपेक्षा बहुत कम अधिकार प्राप्त थे और कई बार तो महिलाओ की सुनी तक नहीं जाती थी पर समय के साथ जैसे जैसे हमारा समाज हड़प्पा काल से, महाजनपद काल से, वैदिक काल से, मौर्य काल से, मुगल काल से, स्वतंत्रता संग्राम के काल से होकर गुजरा तो परिस्तिथिया बदलती गई और इसी के साथ लोग बदलते गए और साथ ही बदली उनकी सोच।
इसी बदलाव की कड़ी में सरकार ने कई सारे ऐसे विकल्प प्रस्तुत किए जिससे महिलाओ के जीवन स्तर को उठाया जा सके और लैंगिक असमानता की दिशा को परिवर्तित कर और लैंगिक स्तर पर समानता लाने के कदम उड़ाए गए। सबसे बड़ी कोशिश तो ये रही की अब लड़कियों को पराया धन न समझ कर उनको धनी बनने की बात कही गई और इसी के साथ आज सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक स्तर पर महिलाएं परचम लहरा रही है। क्या होगा अगर मैं कहूं की ये असमानता अब भी जारी है? हम में से लगभग हर इंसान अब यही तर्क देगा की "लड़कियों के पास अब सारे अधिकार तो है फिर कैसी असमानता..!!" जी हां, लड़कियों के पास अब अधिकार ही नहीं बल्कि विशेषाधिकार भी है, जहा सविधान संशोधन से यह कोशिश की जा रही थी की लैंगिक समानता लाई जाए, आज उसी के कारण ये असमानता एक बार फिर अपने चरम की ओर बड़ रही है और इस बार इसके केंद्र में महिलाएं नहीं अपितु पुरुष है जो असमानता का शिकार हो रहे है।
महिलाओ की स्थिति को ऊपर उठाने हेतु महिलाओ को संसद की सीटों पर आरक्षण प्राप्त दिया गया जिससे की देश के कानून निर्माण में उनकी भागीदारी दर्ज की जा सके । वो सारी सवैधानिक धाराएं जो महिलाओ को आगे बड़ने से रोकती थी उनमें संशोधन किए गया और कई परिस्थितियों में तो उन्हे समाप्त भी कर दिया गया। महिला सुरक्षा हेतु राष्ट्रीय तथा राज्य स्तर और कई आयोग और समितियों बनाई गई जो अब भी कार्यरत है जैसे दिल्ली महिला आयोग। अगर हम कानूनी अधिकार की बात करे तो dowry act, घरेलू हिंसा अधिनियम, IPC की नवीन धाराएं जो राइट अगेस्ट वॉयलेंस, सेक्सुअल हैरेसमेंट जैसी अनेकों नियम महिलाओ को हो रही समस्याओं को कम करने के लिए लाए गए है परंतु ये परिस्थिती तक बिगड़ जाती है जब हमे यह ज्ञात होता है की ये सारे कानून जेंडर न्यूट्रल नहीं है अपितु ये सारे कानून केवल और केवल एक लिंग विशेष के लिए बना है। इसी के साथ हमारा सविधान यह मानने को तैयार ही नहीं है की एक पत्नी अपने पति को मार सकती है, एक लड़की के द्वारा एक लड़के को ब्लैकमेल किया जा सकता है या एक स्त्री किसी लड़के को कभी भी प्रताड़ित कर सकती है। क्या यही है लैंगिक समानता जहा कानूनी दृष्टि से यह घोषित कर दिया गया है की की शोषित हमेशा लडकिया होती है और उनका शोषण हमेशा लड़के ही करते है। कहने का तात्पर्य है की हमारा सविधान अब भी लैंगिक समानता के क्षेत्र में कोई कानून नही बना पाया है।
इन कानूनों को इस उद्देश्य से बनाया गया था की ये लैंगिक असमानता को कम करे और सभी को एक दृष्टि में रख कर देखा जा सके। पर क्या वास्तव में ये कानून जेंडर न्यूट्रल है? इसका सीधा सा जवाब होगा नही, क्योंकि अगर पीड़ित कोई महिला होती है तब हम सारी कानून प्रक्रिया को होता पाते है और अगर पीड़ित कोई पुरुष हो तो कभी कोई कानूनी कार्यवाही होती ही नही है। कहने का आशय यह है की जो कदम हमने लैंगिक समानता लाने के लिए बनाई थी अब वही हमारे समाज में असमानता ला रही है। यह कहना अत्यंत निराशाजनक है की आज इन्ही आसमान संवैधानिक रीतियों के कारण लड़के भी सामाजिक शोषण का शिकार हो रहे, कई जगह उनसे पैसे लूटे जा रहे है तो कई कई बार तो उनको झूठे रेप केस में सलाखों के पीछे अपनी जिंदगी गुजारनी पड़ रही है।
निम्न संवैधानिक धाराएं लैंगिक समानता लाने के लिए बनाई गई थी, किंतु अगर हम इनपर गौर से सोचे तब हमे ज्ञात होता है की ये सारे कानून तो महिलाओं की ओर झुके हुए है और ये सामाजिक असमानता का एक अभिन्न कारण बन कर उभरा है
सेक्शन 304 (b) दहेज प्रथा-
इसके अंतर्गत यह प्रावधान है की अगर शादी के बाद किसी स्त्री के साथ उसके ससुर का कोई सदस्य उससे जबरदस्ती पैसे या अन्य संपत्ति की मांग कर रहा हो या उसे शर्रिक रूप से कोई चोट पहुंचा रहा हो तो वह पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट दर्ज कर सकती है और न्यायालय भी इसपर शीघ्र कोई कदम अवश्य उठता ही है।
सेक्शन 498 (a)- mental and physical harassment
अगर किसी लड़की के ससुराल में उसके साथ किसी प्रकार का दुर्व्यवहार हो रहा हो या स्वयं उसका पति ही उसका शोषण कर रहा हो तो पुलिस स्टेशन में वह केस कर सकती है।
Image by Elias fromPixabay
हमारे संविधान में वर्णित किसी भी कानून में ये नहीं कहा गया है की कोई लड़की किसी लड़की को भी प्रताड़ित कर सकती है। "डोमेस्टिक वॉयलेंस" के मामले में यह माना ही नहीं जाता की कभी कोई पत्नी भी अपने पति पर हाथ उठा सकती है, और "रेप" की परिभाषा में ये सिर्फ यही लिखा है की एक लड़का ही लड़की का रेप कर सकता है और हमारा संविधान ये मानने को तैयार ही नहीं है की कोई लड़का भी इसका शिकार हो सकता है।
हाल ही में indian express में एक रिर्पोट छपी थी " falsely accused of rape, mam released from prison 20 year letter, lost all family while he was behind bars."
जरा सोचिए कोई इंसान बिना किसी अपराध के अपनी जिंदगी का 20 साल जेल में काट कर आया है, तो उसकी जिंदगी के इन दर्दनाक बीते सालों के लिए क्या महिला के खिलाफ कोई कड़ा कदम नही उठाना चाहिए ? उस इंसान ने ना केवल अपने परिवार का विश्वास ही खोया है बल्कि उसके साथ साथ उसने पूरे समाज में अपनी इज्जत भी खोई।
आज हमारे संविधान को जरूरत है की वो मौजूदा कानूनों में संशोधन करे और सारे ही कानूनों को जेंडर न्यूट्रल करे। साथ में डोमेस्टिक वॉयलेंस, हैरेसमेंट, रेप जैसे अपराधो को एक लिंग विशेष से जोड़कर न देखे बल्कि उसे पूरे मनुष्य मात्र की दृष्टि से देखे। और साथ ही फॉल्स केस सिद्ध होने पर उस व्यक्ति के खिलाफ कड़ा कदम अवश्य उठाए।
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