यह आधा शब्द अपने में ही एक अभिशाप सा लगता हैं हमें इस आधे शब्द से ही उलझने होती है। किसी व्यक्ति को किसी भी वस्तु का हक आधा-अधूरा नही चाहिए बल्कि वह संपूर्ण हक के बारे में सोचता हैं। चाहे वो आधा प्यार, आधा मान सम्मान, आधी जिन्दगी या आधी ऐशो-आराम की ज़िंदगी क्यो ना हो हमें ऐसे आधे हकदारी से ही मन में एक खीज उत्पन्न होने लगती हैं। हर मनुष्य अपने जीवन में संपूर्णता चाहता हैं और इस संपूर्णता के लिए वह दिन रात मेहनत करता हैं। एक प्रेमिका को भी अपने प्रेमी से संपूर्ण प्रेम की अपेक्षा रेहती हैं। मगर कभी सोचा है की जिस मनुष्य की जिन्दगी बाल उम्र से ही अधूरेपन में अटक जाए तो यह अधूरापन उसे जिन्दगी भर सोने नही देता और इसी अधूरी जिन्दगी को हम किन्नर कहते हैं।
किन्नर एक ऐसा शब्द है जिसको लोग एक अतिशयोक्ति अंलकार के रूप में प्रयोग नहीं करते बल्कि किसी को अभद्र भाषा मे गाली देने के लिए प्रयोग मे लाते है। नामर्द किन्नर, छक्का, हिजड़ा यह ऐसे शब्द हैं जो किसी की पहचान नही बल्कि एक गाली देना का जरिया है। ऐसा व्यक्ति जो सामर्थहीन हो या अक्षम हो उन्हे हम इन नामो से संबोधित करते है I अपूर्णता की इस कालिख उसके अस्तिव के आईने में एक दरार की तरह निशान छोड़ जाती है। यह टूटा हुआ आईना अपने मे कई आँसू और सवाल समेटे हुए है। यह वह सवाल हैं जो हर किन्नर उन आँसुओ के साथ उस आईने से हर बार यह सवाल पूछता है की ईश्वर ने मुझे ऐसा क्यो बनाया है ? मैं ऐसा पैदा क्यो हुआ ? यह अपूर्णता की कालिख इतनी भयानक है की हर एक विन्नर अपने आपको इस आईने में देखने से भागता है।
एक कहावत हैं की निराशावादी मनुष्य कहता हैं की पानी का गिलास आधा खाली हैं और इसके ठीक विपरीत एक आशावादी मनुष्य के लिए वही गिलास आधा भरा हुआ हैं। अगर समाज, परिवार और कई नाते-रिश्ते इन किन्नरो के प्रति अगर आशावादी बन जाए तो इस अधूरे या आधेपन की जिन्दगी को प्रेम, संवेदनाए और सद्भाव से पूर्ण बनाया जा सकता है। मगर हमारे समाज में मुख्य रूप से दो ही स्तंभों को महात्व दिया जाता है या तो वह नर है या नारी मगर इस तीसरे लिंग को एक तिरस्कारित नजरो से देखा जाता रहा है।
भले ही दस्तावेजो में या संबोधन के लिए इन्हे एक पहचान क्यो ना मिल गयी हो मगर इज्जत और समानता का व्यवहार से यह किन्नर समाज आज भी वंचित है ।आज भी समाज में एक ठूठ का बीज के समान पड़े हुए हैं जो कभी फलवन्त डाली नही बन पाया इस समाज ने उस पर पानी से सींचना और उसे फलवन्त बनाना जरुरी नही समझा इसलिए इसे ठूठ का बीज बनने के लिए हमने ही विविश किया है। यह ठूठता हमारे ही घृणा उपेक्षाए, जिल्लत अनादर ऐसे ही भाव के कारण बना हैं।
इनकी जिन्दगी में यह कड़वी सच्चाई एक ज्वाला के समान इनके हृदय में जलती हैं। यह ज्वाला सिर्फ प्रेम, आदर और सद्भाव के ही द्वारा शांत हो सकती हैं । वो कहते हैं ना दोस्तों, की दुनिया बड़ी जालिम हैं और आपके जखमो को सूखने नही देती । इसलिए शायद इन्होने अपनी एक अलग ही दुनिया बना ली हैं। यह दुनिया को हम किन्नर समाज कहते है , जहाँ कोई किसी पर सवाल नही उठाता, न ही हिजड़ा छक्का नामो से निन्दा करता है, न ही एक-दूसरे को कोई घृणा भरी निगाहो से देखता है। मगर यहाँ एक-दूसरे के आधेपन को अपनाता है और ईश्वर की इस अद्भूत् रचना को स्वीकार करता है। जिस बच्चो को उसके खुद अपनो ने छोड़ दिया उन्हें यह किन्नर समाज प्रेम और इज्जत के साथ अपनाता है और एक समानता का व्यवहार करता है।
मगर सोचने वाली बात तो यह कि, क्या किन्नरो के जीवन की उत्पत्ति से ही तिरिस्कार होते आ रहा है ? नही !! क्योकि जब हम किन्नरो की उत्पत्ति की बात की करते है तो यह पृथ्वी की उत्पत्ति से इनका अस्तिव हमारे बीच मे था। कई पुराणो, प्राचीन लेखो तथा बाइबल में इनकी उपस्थिति की बात कि गयी हैं। हिन्दू मान्यताओ के अनुसार इन्हे “तृतीय प्राकृति”के नाम से जाना जाता था। मगर इनकी ऐसी दयनीय स्थिति जैसा आज हम देखते हैं वैसे बिलकुल भी नही थी। बल्कि इसके ठीक विपरीत यह प्राचीन काल से लेकर मुगल काल तक इन्हें सम्मानित और ऐशो-आराम भरी जिन्दगी नसीब थी। मगर औपनिवेशिक शासन के दौरान यह किन्नर वर्ग अपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 के अंतर्गत इन्हें अपराधिक घोषित करार कर दिया गया और सारी मानव अधिकारों से वंचित रखा गया और तब से ही यह अपने मानवअधिकारों से वंचित इस पीड़ा से गुजर रहे हैं। मगर यह कैसा अपराध हुआ जहाँ, अपराधी ने ऐसा कोई अपराधबोध वाला कार्य ही न किया हो और उसे अपराधी बोला जाए, बड़े ही अचरज की बात लगती हैं। जिसके शारीरिक बनावट में उसका कोई हाथ नही उनमे इन मासूमो का क्या दोष? यह तो वही बात हुई की बिना अपराध के एक निर्दोष को सूली पर चढ़ा दिया गया हो। शायद इंसान की इंसानियत न्यायहीन और अंधेरगर्दी से भर गयी है। मानो उनका विवेक ठंडा सा पड़ गया है। उनकी न्याय और अन्याय पर फर्क करने वाली बुद्धि अक्षम हो चुकी हैं।
मेरा मानना यह हैं की कोई भी व्यक्ति सिद्ध या अचूँक पैदा नही होता है। वह कहीं न कहीं ख़ामियो से भरा हुआ है। अगर कोई सिद्ध हुआ है तो वह ईश्वर एकमात्र है । मगर इन कमियों के बावजूद भी मनुष्य इस समाज में सम्मानपूर्वक जीवनयापन कर रहा है। मगर जब किन्नरों के बारे में बात करे तो यही समाज उन्हे बाहर निकालने मे मजबूर करता है । मैं सोचती हूँ की हर मनुष्य जो इंसानो मे, जाति में या फिर धर्म और वर्ग में भेद-भाव करे वह दंड का भागी है। ऐसे मनुष्य जो समाज के ठेकेदार बने हुए हैं हम उनकी कड़ी शब्दों में निन्दा करते हैं। एक आदर्श समाज भेद भाव से नही बनता मगर एकता प्रेम और समानता का व्यवहार ही एक समाज को आदर्श बनाता है। ऐसा समाज जिसमें इतनी कुरीतिया हो उस समाज की नीव बहुत कमजोर और जंजर होगी। हम समाज से नही बल्कि समाज हमारे ही द्वारा उत्पन्न हुआ हैं और हर व्यक्ति एक आदर्श समाज में मान-सम्मान से रहने का हकदार है। मगर जो वर्ग अपूर्णता की चादर ओढ़े हुए है। उसे सिर्फ यह समाज कुत्ते-बिल्ली के समान रहने का हक क्यों दिया हैं। जब व्यक्ति एक जानवर के प्रति अपने प्रेम और संवेदनाओं को रखता सकता है , तो फिर इनके प्रति इतनी घृणा और अछूत का भाव क्यो है ? यह एक ऐसा सवाल है जिस पर हमें और आपको विचार करने की सक्त आवश्यकता हैं और मैं अपनी कुछ पंक्तियो के द्वारा इनके जीवन की कठिनाईयो को मंचित करना चाहती हूँ :-
ईश्वर ने रचा यह सारा जहान
मगर मैं ढूँढता हूँ, अपनी पहचान
तिरस्कारित नज़रों से यह मुझको दबोचे
क्यो किन्नर हूँ मैं, यह सवालो से नोचे
ईश्वर ने बनाया यह अद्भूत इंसान
प्रेम में रखो यारो, थोड़ा ईमान
प्रेम में रखो यारो, थोड़ा ईमान