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मातम के फिर एक मंजर को लिखने जनाब बेठा हूँ,
बहता लहू चिनाब सी, नदीयाँ बहाए बैठा हूँ..
आवाम के सहमें चेहरों को, आँचल में छुपते देखा है,
फिर से जमीं पर अपनो का, रोते बिलखते देखा है,
होली तो मैं भी ख़ून की, खेले, जनाब बेठा हूँ,
बिखरे हर अल्फ़ाज़ को समेटे जनाब बैठा हूँ..
मातम के फिर एक मंजर को लिखने जनाब बेठा हूँ,
वो नन्ही सी गुड़िया का, बेखौफ चलना, हस्ता, मासूम चहरा, वो घर से निकलना, इतराते हुए, शर्माते हुए, हस के गमों को छुपाते हुए ।
महरूम थी, हर बात से, मासूम दिल की थी बच्ची, पायल की छम छम, कानो मे झुमके, कोमल सी प्यारी वो सच्ची, ना वाकिफ थी, वो किसी अंजाम से, ना मिलती थी वो किसी मेहमान से,
अचानक से आफत ने, जा धर दबोचा,
कई हैवान चेहरों ने, नाखून से नौचा, अस्मत से खेला उस नन्ही सी बच्ची के तकते रहे हम खडे खिड़कियों से,
हम कैसे है रक्षक, जो कानों से बहरे, कितने झूठे है अपने, मुखोंटे ये चेहरे, शर्म लाज हमको अब आती नहीं, झूठी है नजरें, सुहाती नहीं,
छुपे राज दिल के, जलाने में बेठा हूं,
मातम के एक मंजर को लिखने जनाब बेठा हूँ,
बडी, बातें है होती, इस दर शहर में,
कई चौपाल लगते, फिर नुककड पहर में
कोई बात करता है, नेतिकता वाली औरत को समझा है खिलौना हमाली,
कैसे हो इंसाफ, जब बहरा है कानून, किसको लगाउं में अरजी, मैं खातून, मेरी असमत की चर्चा है, हर नुक्कड गली में, कोइ फरक नहीं है, सब सूखा नली में,
फिर समाज के रसूक्दारों से पूछा, क्या, इंसाफ होगा, हिंन्द वर्ग में समूचा, दिखती नही कोई आशा किरण में, निर्दोष द्रोपदी भी लुटी थी भवन में, बने मूक दर्शक थी नगनता सुहाई, यहाँ रिशते है झूठे, बाप बहन भाई, बदकिस्मत का दर्जा हैं देते इसे, कि मासूम लडकी क्यों तुमने उठाई. क्या मालूम था ये जनता है कायर, उन रिशतों को पूरा मिटाने जनाब बैठा हूँ, मातम के हर एक मंजर को लिखने जनाब बेठा हूँ।