'किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से, बड़ी हसरत से तकती हैं, महीनों अब मुलाकातें नहीं होती.....' गुलजार साहब की ये पंक्तियां आज के दौर का कटु यथार्थ है. हालांकि, किताबें समाज में एक कालातीत और अमूल्य स्थान रखती हैं, जो सीखने, व्यक्तिगत विकास और विचारों के आदान-प्रदान की सुविधा प्रदान करती हैं. उनमें जन समुदाय को शिक्षित, प्रेरित और परिवर्तन करने की शक्ति होती हैं, जिससे वे मानव संस्कृति और विकास का एक अनिवार्य घटक बन जाती है. लेकिन इसे विडंबना ही कहे कि तकनीक की घुसपैठ के कारण आजकल किताब पढ़ने की परंपरा थमती जा रही है. अधिकतर युवा अब बुक की जगह फेसबुक, वाट्सएप तथा इंटरनेट पर अपना अधिक समय गुजार रहे हैं. नतीजतन, किताबें अब केवल ड्राइंग रूम में सजावट का सामान बनकर रह गई हैं.
राजस्थान के जालोर जिले के बागरा कस्बे की रहने वाली ममता देवी कहती है, 'मेरा बेटा अभी चार साल का है और पूरा दिन मोबाइल से चिपका रहता है. उसके हाथ से मोबाइल छुड़ाओ, तो अपना सिर पटकने लगता है. अक्षर ज्ञान की किताब लेकर दो, तो उसे वह पढ़ने के बजाय फाड़कर फेंक देता है. इसी तरह एक अन्य गृहिणी सुशीला देवी कहती है, 'मेरे दो बच्चे हैं. एक नौवीं में पढ़ता है और दूसरा ग्यारहवीं में. दोनों मोबाइल पर रील्स बनाने में अपना ज्यादातर समय गंवा देते हैं. साहित्यिक किताब पढ़ना तो दूर स्कूल की किताबें भी तभी पढ़ने बैठते हैं जब परीक्षा नजदीक आती है. कोरोना काल में बच्चों की पढ़ाई बाधित न हो इसलिए मोबाइल लाकर दिया था, लेकिन अब लगता है उसका दुरुपयोग हो रहा है.' किताबों के प्रति तेज गति से हो रहे मोहभंग के कारण बाल व युवा पीढ़ी अपने लक्ष्य से विमुख हो रही है. 24 राज्यों के 26 जिलों में 'असर' (एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट) द्वारा किए गए सर्वे के नतीजे इसकी तसदीक करते हैं. इन राज्यों के साठ-साठ गांवों में किए गए सर्वे में यह बात निकलकर आई कि वहां 94 फीसदी लोगों के पास मोबाइल और करीब 74 फीसदी के पास टेलीविजन है. किताबें और मैगजीन के मामले में यह आंकड़ा बेहद निराशाजनक है. केवल 10 फीसदी लोगों के घरों में ही किताबें और मैगजीन है.
किताबों से दूरी को लेकर आखिर क्या मजबूरी है? सवाल के जवाब में साहित्यकार सोमप्रसाद 'साहिल' कहते हैं, 'यह सच है कि आज के बच्चे साहित्य से दूर होते जा रहे हैं. प्रथम दृष्टया इन बच्चों के माता-पिता इसके दोषी हैं, जो या तो साहित्य के महत्व को समझ नहीं पा रहे हैं या इस पूंजीवादी व्यवस्था में साहित्य की उपयोगिता को बेकार मानते हैं. साहित्य कल भी प्रासंगिक था, आज भी है और कल भी प्रासंगिक रहेगा. मेरी दृष्टि में जो सत्य के हित की बात करें वही साहित्य है. हम बच्चों को सच्चाई से दूर कर रहे हैं. आज दुराचार एवं अपराधों की वृद्धि का मुख्य कारण साहित्य की उपेक्षा है. पहले स्कूली विषयों के अलावा अन्य विषयों की पढ़ाई की परंपरा थी, वह परंपरा अब खत्म होने के कगार पर है. पहले घरों में साहित्यिक पुस्तकें रखने और पढ़ने का चलन था. इसके साथ ही बच्चों को बचपन से ही पुस्तकालय की ओर प्रोत्साहित किया जाता था, जहां बच्चे बाल साहित्य का अध्ययन करते थे और इस साहित्य से जीवन मूल्यों का निर्माण होता था. आज माता-पिता बचपन से ही बच्चों के हाथ में मोबाइल थमा देते हैं, जिससे बच्चे जीवनभर लाइब्रेरी से दूर रहते हैं. आज हमें बच्चों को पुस्तकालयों से जोड़ने की जरूरत है, ताकि उनमें साहित्य के प्रति रुचि बढ़े और साहित्य से बढ़ती दूरी खत्म हो. सरकारों को भी बाल साहित्यकारों को विशेष प्रोत्साहन देना चाहिए, ताकि अधिक से अधिक बाल साहित्य लिखा जा सके.'
इस बारे में बाल साहित्यकार डॉ. पूनम पांडे का कहना है, 'आजकल भौतिक सुख-सुविधा की जद्दोजहद में माता-पिता न तो अपने बच्चों की बात ध्यान से सुनते हैं और न ही उन्हें समय देते हैं. माता-पिता अपने बच्चों को टैबलेट, कंप्यूटर, आईपॉड देकर अपना रुतबा तो बढ़ाते हैं, लेकिन साल में एक-दो बार पुस्तक प्रदर्शनी में नहीं ले जाते. इसलिए बच्चे किताबों से दूरी बना रहे हैं और पूरा दिन मोबाइल पर बिताते हैं. उन्हें किताबों और स्कूल में पढ़ना काफी उबाऊ लगता है. और इतना ही नहीं, लोग अपने घर में किताबें नहीं रखते, जबकि हमारी भारतीय जीवनशैली में कहा गया है कि घर में एक छोटी सी लाइब्रेरी होनी चाहिए. आज के समय में लोग इतने व्यस्त हो गए हैं कि वह अपने साथ-साथ अपने परिवार के लिए भी समय नहीं निकाल पाते हैं. 21वीं सदी में प्रौद्योगिकी के विकास के साथ इंटरनेट और मोबाइल फोन हमारे जीवन का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए हैं. इसकी मदद से रोजमर्रा की जिंदगी की चीजें बहुत आसान हो गई हैं, लेकिन लोगों को इस अनोखी तकनीक के कुछ नुकसान भी झेलने पड़ते हैं. हम अपने काम या मनोरंजन के लिए मोबाइल फोन, कंप्यूटर, टेलीविजन आदि से चिपके रहते हैं, जिसे देखते हुए छोटे बच्चे भी इन उपकरणों को चलाने की जिद करते हैं, जिसके कारण बच्चों को इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की आदत हो जाती है. कई बार व्यस्त रहने के कारण घरवाले मजबूरी में बच्चे को मोबाइल फोन आदि दे देते हैं, जिसके बाद धीरे-धीरे बच्चे को भी स्मार्टफोन, लैपटॉप आदि की लत लग जाती है और वे दिन भर इन्हीं उपकरणों से चिपके रहते हैं, जिससे परिवार में दूरियां बढ़ती जाती हैं. ऐसा भी देखा गया है कि कई बार बच्चे बिना फोन देखे खाना भी नहीं खाते हैं. यह आदत उनकी सेहत पर भी बुरा असर डालती है. इंटरनेट के युग में माता-पिता और बच्चों का किताबों से दूर रहना आम बात हो गई है. आजकल बच्चे भी किताबें उठाना पसंद नहीं करते क्योंकि माता-पिता स्वयं दिनभर इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स से चिपके रहते हैं. अगर आप खुद बच्चों के सामने किताब पढ़ेंगे, तो बच्चे भी नकल करते हुए किताब उठा लेंगे, जब वे ऐसा करें, तो उनके साथ बैठकर चर्चा जरूर करें और उनमें रुचि जगाएं, ताकि बच्चे मोबाइल छोड़कर किताब से जुड़ें.'
किताबों से बढ़ती दूरी के प्रभाव और इस समस्या के समाधान पर अपने विचार साझा करते हुए वरिष्ठ शिक्षक पकाराम कहते हैं, 'किताबें पढ़ने से बच्चों को समृद्ध शब्दावली, वाक्य संरचना और कहानी कहने की तकनीक का पता चलता है. जब बच्चे किताबों से दूर होते हैं, तो उनकी भाषा कौशल प्रभावी ढंग से विकसित नहीं हो पाती है, जो जटिल विचारों को संप्रेषित करने और समझने की उनकी क्षमता को प्रभावित कर सकती है. किताबें बच्चों के दिमाग को व्यस्त रखती हैं, उनकी कल्पना शक्ति को उत्तेजित करती हैं और आलोचनात्मक सोच कौशल को बढ़ाती हैं. जब बच्चे किताबों से दूर होते हैं, तो वे इन संज्ञानात्मक लाभों से वंचित रह जाते हैं, जिससे संभवतः उनके बौद्धिक विकास और समस्या-समाधान क्षमताओं पर असर पड़ता है. बच्चों की साहित्य से दूरी के बारे में चिंता करने की तुलना में सोशल मीडिया उपभोग के प्रति संतुलित दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करना अधिक उत्पादक है. माता-पिता और शिक्षक आकर्षक और आयु-उपयुक्त किताबें प्रदान करके, पढ़ने के लिए समर्पित समय निर्धारित करके और रोजमर्रा की गतिविधियों में साहित्य को शामिल करके पढ़ने के प्रति प्रेम को बढ़ावा दे सकते हैं. पढ़ने को आनंददायक और सुलभ बनाकर किताबों के प्रति आजीवन प्रेम विकसित कर सकते हैं.'