हाल
ही में इंटर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि वर्ष 2030 तक पृथ्वी की सतह के औसत तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगी। जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप यदि पृथ्वी के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है, तो इसके बहुत गंभीर परिणाम हो सकते हैं। पूर्व-औद्योगिक स्तरों से अब तक वैश्विक तापमान में 1.2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि ग्लोबल वार्मिंग तेजी से बढ़ रहा है और इसके लिए मानव जाति स्पष्ट रूप से जिम्मेदार है। यह एक ज्ञात तथ्य है कि जलवायु परिवर्तन वास्तव में न केवल मनुष्यों के लिए बल्कि इस पृथ्वी पर सभी जीवित प्राणियों के लिए एक बड़ा खतरा है। पृथ्वी की धारण क्षमता में गिरावट का यही एकमात्र कारण है। प्राकृतिक संसाधन दुर्लभ होते जा रहे हैं। यहां तक कि पीने के पानी की आपूर्ति भी कम हो रही है।

धरती पर बढ़ते तापमान व जलवायु परिवर्तन का कारण मानव जनित ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन है। ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन मुख्य रूप से दो कारणों से होता है। पहला, बड़ी आबादी के कारण लोग अधिक ईंधन आदि का उपयोग करते हैं, जिसके कारण अधिक कार्बन-डाइऑक्साइड निकलती है। यह स्थिति ज्यादातर विकासशील देशों की है। दूसरा, कम आबादी के बावजूद विलासितापूर्ण जीवन शैली के कारण भी अधिक ऊर्जा की खपत होती है और अधिक कार्बन निकलती है। जैसे एयर कंडीशनिंग उपकरण, हवाई जहाज, कंप्यूटर, परफ्यूम, बिजली के माध्यम से विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उपयोग। सभी विकसित देशों की यही स्थिति है। कहने का तात्पर्य यह है कि विकसित देशों में प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत और कार्बन उत्सर्जन बहुत अधिक है। दरअसल, विकास से विनाश का भयावह मंजर प्रकृति के प्रति मानव के अनुचित व्यवहार के कारण होता है। आज मनुष्य की आकांक्षाओं में अनवरत वृद्धि हो रही है, जबकि इन आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए संसाधन बहुत सीमित हैं। जब असीमित इच्छा और सीमित संसाधन के बीच संघर्ष होता है, तो उसका परिणाम कभी भी मनुष्य के लिए कल्याणकारी नहीं होता।

बढ़ते तापमान व जलवायु परिवर्तन का हमारे देश की अर्थव्यवस्था पर विनाशकारी प्रभाव पड़ रहा है। वर्षा की अपर्याप्त मात्रा के कारण यह सीधे वायु तापमान को प्रभावित करता है। हमारे देश में प्राकृतिक संसाधनों विशेष रूप से वनस्पतियों और जीवों की एक विशाल विरासत है और पूरे विश्व में जैव विविधता के क्षेत्र में भारत का एक महत्वपूर्ण स्थान है। इस विविधता को संरक्षित करने के लिए हमें राष्ट्रीय स्तर पर जलवायु में होने वाले परिवर्तनों के बारे में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करना होगा। कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए पुन: प्रयोज्य संसाधनों के उपयोग को बढ़ाकर ही संकट को कम किया जा सकता है। कुल मिलाकर आज के संदर्भ में यह आवश्यक है कि विश्व मानव समाज जलवायु परिवर्तन के संकट से अनभिज्ञ न रहे। विश्व विनाश को रोकने के लिए कार्बन-डाइऑक्साइड उत्सर्जन की मात्रा को कम करने और क्लोरोफ्लोरोकार्बन के वैकल्पिक यौगिकों का उपयोग करने की अविलंब आवश्यकता है। दुनिया के सभी छोटे और बड़े राष्ट्र एक साथ मिलकर एक सर्वसम्मति से रास्ता खोज सकते हैं। यह सब कहना आसान है, लेकिन 7.78 अरब की आबादी वाले विश्व में इसे लागू करना कठिन काम है। अगर ऐसा हुआ तो दुनिया बच जाएगी, नहीं तो बड़ा विनाश होना तय है।

मानव विकास के लिए प्रकृति के प्रति उचित दृष्टिकोण अपनाना होगा। इस तथ्य को आधुनिक विचारकों और प्राचीन भारतीय ऋषियों ने स्वीकार किया है। प्रकृति के साथ ऐकात्म्य स्थापित करना ईश्वर, प्रकृति और मानव तत्व की खोज करना है। भारतीय मनीषा में न केवल प्रकृति के साथ ऐकात्म्य रखने का भावबोध पाया जाता है, बल्कि इस संबंध में एक व्यापक दर्शन है। मानव प्रकृति की एक चैतन्य रचना है, जिसका आधार पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु ये पंचमहाभूत है। यही भारतीय दर्शन का सार है। इसलिए स्वास्थ्य और अस्तित्व के लिए इन पंचमहाभूत का मनुष्य और जीवों के अनुकूल होना अपरिहार्य हैं। भारतीय संस्कृति में प्रकृति या पृथ्वी से उतना ही लेने की बात कही गई है, जितना लौटाया जा सके। लेकिन उपभोक्तावादी प्रवृत्ति से प्रभावित मानव समाज वस्तुओं के अधिक उपभोग की ओर उन्मुख है। विकास और पर्यावरण की दिशा में प्रगति के बीच संतुलन का अभाव एक गंभीर चुनौती है। विकास के कारण पारिस्थितिक प्रभाव और पर्यावरणीय विकृतियों ने हमें यह सोचने पर विवश कर दिया है कि क्या विकास को रोका जाना चाहिए? यदि नहीं, तो विकास की सही दिशा क्या होनी चाहिए ताकि पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े? इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि विकास का पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि विकास को रोका जाना चाहिए। विकास को सही मानव-हितैषी दिशा देने की आवश्यकता है और पर्यावरण पर इसके दुष्प्रभाव रोकने के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास किये जाने की जरूरत है। यदि सभी मिलकर पर्यावरण संरक्षण पर सार्थक विमर्श करें तथा अपनी जीवन शैली को पर्यावरण अनुकूल बनाने की पहल करें तो यह कठिन कार्य भी असंभव नहीं है। 

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