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बच्चे देश का भविष्य होते हैं। किसी भी समाज के चरित्र का पता लगाने का सबसे अच्छा तरीका यह हो सकता है कि वह समाज अपने बच्चों के साथ कैसा व्यवहार कर रहा है। हमारे समाज में बच्चों के साथ बढ़ता बर्बरतापूर्ण व्यवहार साफ दिखा रहा है कि न्यू इंडिया और उसका परिवेश बच्चों के अनुकूल बिल्कुल भी नहीं है। हाल ही में राजस्थान के चूरू में एक शिक्षक ने होमवर्क नहीं करने जैसी बेहद मामूली बात पर सातवीं में पढ़ने वाले 13 साल के गणेश की इतनी बर्बरता से पिटाई की कि उसकी मौत हो गई। इसी तरह झुंझुनू जिले के एक सरकारी स्कूल के पीटीआई ने बिना कारण जाने ही हिमांशु को कमरे में बंदकर इतना पीटा कि उसकी उंगली फ्रैक्चर हो गई। राजस्थान में मार्च से अब तक करीब 12 से ज्यादा शिकायतें शिक्षा निदेशालय तक पहुंची हैं। मार्च 2021 में धौलपुर, उदयपुर में स्कूल में बच्चों से मारपीट के तीन मामले जबकि सितंबर में जोधपुर के पिपाड़ और झुंझुनू के बुहाना में स्कूल में अत्याचार के मामले दर्ज हो चुके हैं।

पिछले दिनों तमिलनाडु के एक सरकारी स्कूल में छात्र को एक ईसाई शिक्षक ने महज इसलिए बेरहमी से पीटा, क्योंकि उसने रुद्राक्ष पहन रखा था। उन्नाव के चकपरेंदा गांव में आठवीं में पढ़ने वाली 14 वर्षीय शिवानी को कुछ सवालों के जवाब न दे पाने पर एक शिक्षक ने डंडे से बुरी तरह इतना पीटा कि अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा, वहां उसने दम तोड़ दिया। इसी तरह हरियाणा के सरकारी स्कूल में 11वीं के एक छात्र द्वारा कथित तौर पर कक्षा के अंदर सीटी बजाने से गुस्साए शिक्षक ने लगभग 40 बच्चों को लाठी से इतनी बुरी तरह पीटा कि उनके शरीर पर निशान पड़ गए। इस घटना में 10 बच्चों को बुरी तरह से चोटें आईं, जिसके चलते उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। वहीं उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के एक निजी स्कूल से एक अजीबो-गरीब घटना सामने आई है। शरारत करने पर कक्षा 2 के छात्र सोनू यादव को सजा के तौर पर प्रिंसिपल ने बिल्डिंग की बालकनी से पैर पकड़ कर उल्टा लटका दिया। ये घटनाएं न सिर्फ दुखदाई हैं, बल्कि समाज के शिक्षित और विकसित होने पर भी सवाल उठाती हैं।

उल्लेखनीय है कि दुनिया के 53 देशों में घर या स्कूल में कहीं भी बच्चों को दिए जाने वाले शारीरिक दंड पर पूर्ण प्रतिबंध है। इसकी शुरुआत सबसे पहले 1979 में स्वीडन में हुई थी। अगर हम स्कूल में ही शारीरिक दंड की बात करें तो 117 देश ऐसे हैं जहां इस पर प्रतिबंध है। हालांकि माता-पिता द्वारा शारीरिक दंड संयुक्त राज्य अमेरिका, सभी अफ्रीकी और एशियाई देशों के सभी राज्यों में कानून के खिलाफ नहीं है। स्कूली बच्चों से जुड़ी बर्बरता को लेकर शोध बताता है कि कक्षा में शारीरिक दंड एक प्रभावी अभ्यास नहीं है और इससे लाभ से ज्यादा नुकसान हो सकता है। जिन बच्चों को पीटा जाता है और दुर्व्यवहार किया जाता है, उनमें अवसाद, आत्महीनता और आत्महत्या की संभावना ज्यादा होती है। सामान्य तथ्य यह है कि अनुशासनात्मक उपाय के रूप में शारीरिक दंड किसी भी शिक्षा पाठ्यक्रम का अंग नहीं है।

हमें लगता है कि एक चांटे से क्या बिगड़ जाएगा? या एक छड़ी से कितनी बड़ी चोट लग जाएगी? ये उचित है कि एक चांटे से, या एक छड़ी से शायद बच्चे के शरीर को अधिक चोट ना लगे, लेकिन ये चांटे उन्हें गहरा मानसिक आघात पहुंचाते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिन बच्चों को गलती करने पर प्रेम से समझाने के बजाए पीटा जाता है, वो मानसिक रूप से परेशान रहते हैं। ऐसे बच्चे या तो बिल्कुल चुप रहने लगते हैं, डिप्रेशन में चले जाते हैं या हिंसक हो जाते हैं। हार्वर्ड के शोधकर्ताओं का कहना है कि जिन बच्चों को पीटा जाता है, उनके मस्तिष्क के प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स (पीएफसी) के कई हिस्सों की तंत्रिकाएं बहुत तेजी से प्रतिक्रिया करती हैं। यानी उन हिस्सों का न्यूरल रिस्पॉन्स ज्यादा होता है। एक अनुसंधान में भी इस बात का खुलासा हुआ है कि बच्चों को डांटना और उन पर चिल्लाना, उन्हें मारने से अधिक खतरनाक है। इस संबंध में विशेषज्ञों ने दो वर्षों तक 950 छात्रों पर अध्ययन किया। परिणाम में उन बच्चों का व्यवहार जिन्हें घर में डांट पड़ती थी, दूसरे बच्चों से भिन्न था। ऐसे बच्चे उदास और अकेलेपन का शिकार हो जाते हैं।

शिक्षा में शारीरिक दंड की घटनाओं पर बने कानूनों में कुछ कमियां भी हैं। उदाहरण के लिए, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 323 के अनुसार, किसी को भी शारीरिक और मानसिक पीड़ा देना अपराध है, लेकिन बच्चों को पहुंचाई गई चोट इसमें शामिल नहीं है। इसी तरह अनुच्छेद 88 और 89 उन सभी लोगों को संरक्षण देती है, जो बच्चों को किसी भी प्रकार की पीड़ा पहुंचाता है, बशर्ते ये बच्चे की भलाई के लिए किया गया हो। इस तरह के संवैधानिक प्रावधान बच्चों को दिए जा रहे शारीरिक और मानसिक दंड को वैध करार देते हैं। चाबुक के डर से शेर भी उछल कर कुर्सी पर बैठ जाता है, उसे वेल ट्रेंड कहते हैं, वेल एडुकेटेड नहीं। डायलॉग फिल्मी है लेकिन स्कूलों में बिगड़ते हालातों पर गंभीर चिंतन की ओर इशारा करता है। बच्चों की समस्याओं को समझ कर उनकी मदद करने की जरूरत है। उन्हें संभालना एक बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है। संयम और सतर्कता से समाधान निकालना चाहिए। बच्चे डिप्रेशन और तनाव का शिकार हो रहे हैं। अगर ऐसी घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं तो समझ लेना चाहिए कि हमारे परिवेश में कहीं न कहीं खामियां हैं। बच्चे अपनी मासूमियत और सहजता खो रहे हैं। ऐसे में माता-पिता और शिक्षकों को समय-समय पर किसी न किसी माध्यम से सामाजिक प्रशिक्षण और मनोवैज्ञानिक उपचार प्रदान करने की आवश्यकता है।

शिक्षक को भगवान का रूप कहा जाता है। हर परेशानी सहकर अपने विद्यार्थियों का जीवन संवारने वाले शिक्षक शायद आज अपनी पहचान व महत्ता को भूलते जा रहे हैं। बर्बरता, क्रूरता और असभ्यता आज के शिक्षकों में घर करने लगी है। शिक्षकों को यह समझ लेना चाहिए कि उनके रुखे, पक्षपातपूर्ण तथा बेवजह दंड देने के निर्मम व्यवहार से यही मासूम बच्चे भविष्य में उदंड, ढीठ, गैर जिम्मेदार बन सकते हैं। आज कॉलेजों में उच्छृंखल प्रवृत्ति के युवाओं की भरमार में भी कहीं न कहीं ऐसी ही घटनाओं की अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदारी होती है। बच्चों को नेक इंसान बनाने, सुसंस्कृत करने, नैतिक मूल्यों की शिक्षा देने की जिम्मेदारी केवल अभिभावकों की नहीं अपितु शिक्षकों की भी है। शिक्षकों को विद्यार्थियों के साथ प्रेम, स्नेहपूर्ण व्यवहार से अपने दायित्वों को निभाना होगा। अपने झूठे दंभी, क्रूरता, मनमानी, ईर्ष्या का चोला उतार फेंक सौहार्द पूर्वक ढंग से मासूम बच्चों की जिंदगी संवारने का फर्ज निभाना होगा।

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