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है बहुत अंधेरा, मैं हूं कहां
दूसरे ग्रह पर हूं खड़ा
ना कोई घर - ना कोई इमारत
ना ही खेत ना ही खलीहान यहां
सिर्फ काली रात है, और चंद्रमा का प्रकाश यहां||
ना ही जिंदगी की दौड़ है
ना ही नात रिश्तेदार यहां
पथरीली सी भूमि है
 माँ की सारी याद यहां||
ना मोटी मोटी किताबे
ना बेहतरीन बनने की ख्वाहिश यहां
ठंडी ठंडी सी हवा
जैसे माँ का आंचल हो यहां||
ना कोई तू -तू, मैं- मैं
ना कोई राजनीति यहां
सब बिन बोले समझ रहे हैं
गुनगुनाती सी खामोशी यहां||
ना पिज्जा बर्गर की भूख है
ना ही रेस्टोरेंट की लत यहां
 माँ के हाथ की रोटी हो
और उसकी सुंदर मुस्कान यहां||
बस इतनी सी हो कल्पना पूरी
मैं यहीं रहना चाहूंगा,
कभी न मेरा ये स्वप्न टूटे
स्वार्थी लोगों से न मिलना चाहूंगा
इस अंधेरे में सुकून पाकर
 चाँद  को देखकर समय बिताऊंगा
और अपनी माँ के बारे में सोचकर
उन्हें ज्यादा समझ मै पाऊंगा।।

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