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अगर कह पाते अपनी व्यथा बेजुबान जानवर
तो कहते हे मानुष! अपनी चेष्टाओं की पूर्ति कर क्यों हमें बनाते हो बेघर ?
कुदरत ने बनाया तुम्हें विवेक से मालदार
तो अपनी बुद्धिमत्ता का प्रयोग कर
क्यों अपना भोजन बनाते हो हमें काटकर?
दिन ब दिन हिंसक प्रवृत्ति अपना कर
हमारे अंगों को तितर बितर कर
प्रेम वफादारी का पाठ भूलकर
क्यों जुल्म करते हो हम पर?
पिंजरे में हमारी आजादी को कैद कर
अपने परिजनों से दूर कर
क्यों हमारे दुखों से हो बेखबर?
कई प्रजातियां हैं विलुप्त होने के कगार पर
जीते है दर-दर की ठोकरें खाकर
क्यों नहीं कुछ कार्य करते हो हमारे संरक्षण पर?

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