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जो राहे लगती थी दुर्गम,लगने लगी अब वो सुगम
जब थाम गुरु का हाथ,उसकी चौखट पर रखा कदम।
रूह को आंतरिक सुकून की अनुभूति हुई
अविरल अश्रुओं की धारा में बहती गई।
आत्मा की प्यास बुझी,भावविभोर हो अनुग्रहित हुई
अंतर्मन में थी जो दुविधा,वो जाने कहां गुम हो गई।
पापों से मैली चुनर मेरी,अब उज्जवल हुई
अंधियारी रातों में भटकती रही,अब नव भोर से मुलाकात हो गई।
भीतर एक आलौलिक ज्योति प्रज्वलित हुई
देख अनमोल कांचन,बाहरी आभूषणों की चमक फीकी हो गई।
शब्दों में ना बयां कर सकूं, ऐसी तरंगे उत्पन हुई
काम, क्रोध,लोभ,मोह और अहंकार से मुक्त हो गई।
शिव का आहद नाद भी दिया सुनाई
समझ आने लगे,कबीर के दोहे,और तुलसी की चौपाई।
अनमोल है मानस जीवन,ज्ञात हुई इसकी गहराई।
मिथ्या ज्ञान से दूर, प्रकाशमय ज्योतिस्वरूप में समा गई।
भर्मो में उलझी थी,सुलझ गए,अब सारे वहम
जब थाम गुरु का हाथ उसकी चौखट पर रखा कदम।

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