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सृष्टि की तुम स्तंभ उसकी आधारशिला हो
प्रकृति की तुम अनुपम कृति ममता की मूरत हो।
फिर क्यों रूढ़ियों के बंधन में बंधी हो
सिसकियों और रुदन में उलझी हुई हो?
पुरुष के अहम की कैदी बनकर
अपनी ख्वाहिशों को दफन कर
अपना तिरस्कार सहनकर
मर्यादा की हद में रहकर
कब तक जिएगी अपने आत्म सम्मान को खोकर?
हे नारी! उठो तुम अब बदलो अपना व्यवहार
दास्तां की जंजीरों को तुम करो अस्वीकार
आत्मनिर्भरता को करके अंगीकार
जीवन के कैनवास पर करो अपना विस्तार।
मौन की रस्सी खोल बढ़ तू आगे की ओर
अधीनस्थ जीवन को छोड़ स्वयं संभाल अपने पतंग की डोर
हौसलों की कलम से मचा सफलता का शोर
अस्तित्व की लड़ाई में मिलेगी कामयाबी की भोर।

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