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इस दीपावली श्री राम धरा पर आइए
छोड़ बैकुंठ की गलियां कलयुग में पधारिए।
नित मर्यादा भंग होती, टूटता धर्म का दर्पण
चीख चीत्कार होती ,होता सीता का अपहरण।

जाने कितनी अहिल्या जीते जी बनी पाषाण
बराबरी का दर्जा मिला नहीं चाहे उठा ले कृपाण।
अधर्म के प्रकोप से विलुप्त हो रही मानवता
जातिवाद के जहर से गुम हो रही समानता।

लोक लाज बचा नहीं विसर रहे हैं नैतिकता
पाश्चात्य संस्कृति अपनाकर भूल रहे हैं सभ्यता।
आज्ञाकारी न कोई संतान,विपरीत बागबां को देते वनवास
भ्राताओं में न स्नेह का बंधन कोई न चाहे सहवास।

संस्कृति के रक्षकों की तपस्या को स्वीकार कर लो
वनवास की बेला को मिलन की बेला बना लो।
उम्मीद का चिराग जलाकर दूर कर दो अंधकार
ज्ञान की रोशनी फैलाकर दूर कर दो भ्रष्टाचार।

सबने मिलकर भेजा ये मनुहार निमंत्रण करो स्वीकार
स्वागत करती रंगोली सबके द्वार आरती की थाली कर रही इंतजार।
अब तो आ जाइए प्रभु लेकर कल्कि का अवतार
थक गई ये अंखियां पंथ रही निहार।

जन की आस को ना टूटने दीजिए
इस युग को भी अपने चरणों से संवारिए।
इस दीपावली श्री राम धरा पर आइए
छोड़ बैकुंठ की गलियां कलयुग में पधारिए।


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