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जी हां,हमारे स्वयं के अंदर है बसंत ऋतु।

ये पंक्ति मेरे जीवन को चरितार्थ करती है।सच में अपने जीवन को पतझड़ के समान ही समझती थी।मैने कभी अपने जीवन में बसंत बहार को आमंत्रित ही नहीं किया।जो न मिला उसके लिए रोती

रही और जो मिला उसके प्रति कृतज्ञता नहीं।

अंदर ही अंदर कुंठित होती थी।मेरे चेहरे को समय से पहले झुर्रियों ने घेर लिया।मेरी अप्रसन्नता बाहर भी दिखने लगी। दरअसल में नए माहौल में अपने आप को ढाल ही नहीं पाई।नकारात्मकता के पिंजरे में कैद हो गई थी।

फिर धीरे धीरे मैने स्वयं को बदला । आध्यात्मिक अध्ययन की ओर बढ़ी स्वयं को पहचाना। अपनी कार्य क्षमता को पहचाना। नई आशाओं नई उम्मीद को अपने हृदय में स्थान दिया। नवीनता को अपनाकर खुद को तरोताजा कर दिया। लेखन के क्षेत्र में कदम रखा।

फिर तो कविताओं और लेखों ने ऐसा घेरा की घुप्प अंधेरी रातों को मिल गए एक नया सवेरा।

मैंने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया खुद ही में खुश रहने लगी अब मैंने समझ लिया कि हमारे स्वयं के अंदर है बसंत ऋतु।

मैंने आगे कुछ पंक्तियों से समझाने का प्रयास किया है।
नवीनीकरण को समझाती नव ऊर्जा का संचार करती 
जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने को प्रेरित करती 
देखो देखो ऋतुराज बसंत चली आई। 
प्रीत ,प्रेम का खुमार हृदय में जाग्रत करती
सुख, समृद्धि ,सौंदर्य का संचार करती
देखो देखो ऋतुराज बसंत चली आई। 
वास्तव में बसंत ऋतु हमारे अंदर होती 
बस इसे जागृत करने की आवश्यकता होती 
पतझड़ में छिपी बसंत ऋतु होती 
जैसे हमारे अंदर छिपी खुशी होती 
बस इस बसंत रूपी खुशी को पल्लवित करने की आवश्यकता होती। 
बसंत में नई कोपलें खिल पुष्पों की बहारें लाती
जैसे उदास चेहरों पर मुस्कान नया श्रृंगार करती 
बस गंभीरता की लबादे को उतार कर
 चंचलता को अपनाने की आवश्यकता होती। 
हमें अपने लक्ष्य की और अग्रसर करती 
मन को महकाती तन को गतिशील करती
देखो देखो ऋतुराज बसंत चली आई।

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