घर से दूर मुझे एक घर बसाना हैं।
एक छोटे से कमरे को ही अपना घर बनाना हैं।
घर में तो हर कोना मेरा अपना था।
अब उस कमरे के हर कोने को मुझे अपना बनाना है।
घर से दूर मुझे एक घर बसाना हैं।
एक कोना कुछ कपड़ो के लिए, तो एक कोना किताबों ने अपनाया हैं।
एक कोना कुछ रोज की छोटी मोटी चीजों के लिए,
तो एक कोना मैंने अपने लिए बचाया हैं।
जो कोना मैंने अपने लिए बचाया है, उसके किनारे एक खिड़की हैं।
वो खिड़की मुझे बहुत प्यारी हैं।
उस जगह पर बैठ मैने कई दिन और रात तन्हा गुजारी हैं।
जब भी खुश होती हूं तो वह खिड़की के बाहर देख कर मुस्कुराती हूं।
या फिर कभी उदास होती हूँ, तो उसकी खिड़की के बाहर देख कर दो-चार आसूं भी बहा लेती हूं।
हर कोने में अब एक मेरी ही कुछ कहानी समाई है।
कभी कपड़ो वाले कोने में बैठ कर कपडे़ सवार लेती हूँ।
तो कभी किताबो वाले कोने में बैठ कर, किताबों में रखे फूलों से खुद को महका लेती हूँ।
तो कभी तीसरे कोने में रखी चीज़ों को इधर, उधर, यहाँ, वहाँ, इतना, उतना का गणित लगा लेती हूँ।
तो कभी खिड़की पर बैठ कर चांद, सितारे, चिड़िया, गिलहरी को निहार लेती हूँ।
अत: इन सब से इतना समझ आया कि जब हर कोना अपना बनता है, तभी घर, घर सा लगता हैं।