आज मैं नीला स्कार्फ किताब की समीक्षा करने जा रही हूं। जो बारह छोटी छोटी कहानियों को सुंदर संग्रह है जिसे अनु सिंह चौधरी ने लिखा हैं। इन्होंने लेडी श्री राम कॉलेज और भारतीय जनसंचार संस्थान से पढ़ाई के बाद टीवी चैनल की नौकरी की। उसके बाद उन्होंने लिखना शुरू किया।

यह किताब 2014 में हिंदी युग्म से प्रकाशित हुई थी। नई वाली हिंदी यानी कि आसान शब्दों में हमारे आस पास की कहानियां। भले ही किताब का नाम नीला स्कार्फ हो लेकिन औरतों के कई रंगों को संजोए हुए है यह किताब ।

नीला स्कार्फ में शामिल हर कहानी का केंद्र एक औरत है। अलग अलग उम्र की औरतें, सब की समस्याएं अलग है, लेकिन दुख एक से। उन्हें न समझे जाने का दुख, उन पर फैसले थोपे जाने का दुख, उनकी उड़ती उड़ान को रोके जाने का दुख। लेखिका ने कहानी के हर पत्र को ऐसे लिखा है जैसे उन्होंने उसे जिया हो, महसूस किया हो।

पहली कहानी चार रूममेट्स की है। जो देश के अलग-अलग शहर एवं अलग-अलग धर्मो से आती हैं, इन चारों को एक दूसरे के नाम से ,सरनेम से, जाति धर्म से कोई परेशानी नहीं थी। लेखिका ने बहुत ही खूबसूरती से इन चारों की बढ़ती दोस्ती के बारे में लिखा हैं।

कैसे ये सब अपने अपने घर छोड़ कर अपने सपने पूरे करने मुंबई शहर आई है। इस कहानी में लिली और असीमा की दोस्ती ने अलग ही छाप छोड़ी हैं। आपके दुख में आपके पास खड़ा आपका दोस्त आपकी हिम्मत का काम करता हैं। जब असीमा अपने पति से तलाक लेने कोट में जाती है, लिली बिना कुछ सवाल जवाब किए उसके साथ रहती हैं वह पहले से इस सब के बारे में नही जानती थी लेकिन उस समय असीमा की हिम्मत बनना चुनना उसने। कहते है न जो सबसे ज्यादा हसाता हैं, या जो आपको हर मुश्किल से निकलने का हल देता है वही सबसे अकेला और दुखी होता है जो की वो सामने से कभी महसूस नही होने देता। ऐसा ही एक पात्र थी लिली इस कहानी में।

दूसरी कहानी बिसेसर बो की प्रेमिका की है, जो एक बड़े घर में काम करती है। बचपन में बड़े लाड़ प्यार से उसका नाम चंपाकली रखा था, लेकिन लाड़ से किस्मत थोड़ी न बदल जाती है। उसका पति बिसेसर कितना काम करता है यह किसी को नहीं पता लेकिन बिसेसर बो हाड़ तोड़ मेहनत करती है। इस कहानी में लेखिका ने बहुत की गहराई से बताया है कैसे छोटी जात वाले लोगो को हमेशा बड़े घरों में दबा के रखा जाता हैं । यह ही नहीं वह अपनी बहू बेटियों को भी कोठरी में बंद रखते हैं।

अगली कहानी है देखवकी। कहानी में लेखिका लिखती है, कि कैसे जब किसी लड़की के लिए बड़े शहर से रिश्ता आता है,तो घर कितनी तैयारियों से भर जाता है। गांव की कुछ लोगों का शहर के प्रति अलग ही मोह होता है। लेकिन शहर वालों की सोच भी काम छोटी नहीं होती। वे रिश्ता कम सौदा ज्यादा करते है लड़की का। लड़की के विवाह में लड़की वालों के फायदे की भी भला कोई बात होती है क्या। हर बाप और मां लड़के वालों की इच्छाओं पूर्ति नहीं कर सकते, वे हार जाते हैं समाज के आगे और उनकी पिछड़ी सोच के आगे।

अगली कहानी है सहयात्री। आजकल आए दिन हम यूं ही जिंदगी को खोजते सफर पर निकल पड़ते हैं, हमारी यात्रा में हमारे सहयात्री भी मायने रखते हैं। लेखिका बहुत ही खूबसूरती से लिखती है कैसे हम अनजान लोग आपस में एक दूसरे से जान पहचान बना लेते हैं। कुछ घंटों के सफर में ही अपनी कहानी एक दूसरे को सुना डालते हैं। एक सफर बस एक सफर में रिश्ते नहीं बनते। ट्रेन में मिलने वाले लोग दोबारा नहीं करते। सफर पूरा होने के बाद दोस्तियां भी खत्म हो जाती हैं बात बेबात हुई चर्चाएं भी। ट्रेन के सहयात्रियों की नियति यही होती है शायद ।ऐसे ही सफर में हम जाने अनजाने किसी को जाने बिना उनके बारे में अपनी राय बना लेते हैं। सच ही कहा है किसी ने अगर किसी के सब्र और स्वभाव दोनों की पहचान करनी हो तो उसके साथ ट्रेन में सफर कीजिए।

अगली कहानी है मर्ज जिंदगी, इलाज जिंदगी। शादी के बाद घर और बच्चों की ज़िम्मेदारियों के बीच ख़ुद को घुटता महसूस करती महिला की कहानी है ये। इस कहानी में शिवानी अपनी डॉक्टर डॉ. गगनदीप शेरगिल से मिलती हैं और वो कैसे शिवानी को समझाती है कि जिंदगी से शिकायत की जगह उससे मोहब्बत करना सीखे। डॉक्टर उसको समझती है जिसे तू जादू की दुनिया कहती है उसे वह दुनिया का जादू कहती है। देखो तो सही आसपास दुनिया का जादू ही तो है सब जगह- हकीकत भी जादू। अपने हाथों कोई और नहीं बनाता या बिगड़ता हमारी जिंदगी। अंधेरे में ही तो दिखेगी रोशनी । जहां हम और तुम बैठे हैं, न वहां सब धुंधला धुंधला है। न उजाला, न सयाह, न शाम, न सुबह,न अंधेरा,न रोशनी। अंधेरे में उतरने की हिम्मत करो। रोशनी का रास्ता वही से निकलता है। शिवानी इतना तो समझ गई ये सब उसके अपने दिमाग का खेल है, उसे कोई बीमारी नही हैं बस उसे जिंदगी को देखने का नजरिया बदलना होगा। वह जान गई कि, जिंदगी नाम की लाइलाज बीमारी का इलाज भी जिंदगी ही है शायद। जो जिंदगी बेरंग दिखती है, उसमे कृत्रिम रंग भरे जाने चाहिए।

अगली कहानी है- हाथ की लकीरें। इस कहानी में लेखिका ने रनिया जो की ठाकुर निवास में सात साल की उम्र से कम कर रही है, सात से अब चौदह की होने चली है, तो उसे अब सिर्फ भाभीजी की सेवा में लगा दिया गया है, क्योंकि भाभीजी मां बनने वाली है, वह भी आठ साल के इंतजार के बाद पहली बार। पूरा परिवार जैसे उन्हें सिर आंखों पर रखता है। दूसरी तरफ रनिया की मां भी फिर से मां बनने वाली हैं। शुरूवात में रनिया भाभीजी के आजू बाजू परछाई की तरह डोलती रहती है। लेकिन अपनी परछाई से भला कौन बात करता है जो भाभी जी करेंगी? दोनों ने एक दूसरे की खामोशियों में सहजता ढूंढ ली हैं। एक को दूसरे के बोलने की कोई उम्मीद नहीं होती। एक उदास खामोश आंखों से हुकुम देती रहती है तो दूसरी खामोश तत्परता से उसका पालन करती रहती है। दोनों अपने-अपने रोल में एकदम सहज हो गए हैं।

फिर एक बार रनिया ने भाभी जी से कहा- आपके पाव कितने सुंदर हैं, भाभी जी आप खुद भी तो कितनी सुंदर है।

भाभी जी हंसकर बोली- "हाथ की लकीरें है रनिया की ये पांव ऐसी जगह उतरे की फूलों पर की चले"। मुझे चलने के लिए इत्ती सी फूलों की बगिया ही मिली हैं रनिया। तेरी तरह खुला आसमान नही मिला उड़ने को।

किसी को अपनी जिंदगी मुकम्मल नहीं लगती। हर किसी को दूसरे का जिया ही बेहतर लगता है नौ महीने बाद रनिया के तो भाई हुआ लेकिन भाभीजी के बच्चे को डॉक्टर बचा न सके। ये सब हाथ की लकीरों का ही खेल है।

अगली कहानी है जिस पर पुस्तक का नाम है- नीला स्कार्फ। यह कहानी है शांभवी और अमितेश की। शांभवी तीन महीने के लिए फेलोशिप के लिए घर से दूर जा रही है, पैकिंग के दौरान उसे मिलता है उसका नीला स्कार्फ जो उसे पुरानी यादों में ले जाता है, कैसी जिद्दी होती है,यादें कि हमारी पकड़ से कभी इधर, कभी उधर कभी यहाँ, कभी वहां फिसलती रहती है,और हमारे ही वजूद पर लिसलिसी सी पड़ी रहती है। न पोछना आसान, न ही धोना।

एक समय पर अमितेश ने शांभवी का साथ नहीं दिया जब उसे पता चला कि वह मां बनने वाली है, वह उस समय बच्चे के लिए तैयार नहीं था।शांभवी अकेले सबके सवालों के जवाब देती रही। अकेले दर्द बर्दाश्त करती रही l। यह दर्द वक्त के साथ कम हो जाता शायद अगर अमितेश ने साथ मिलकर बाटा होता। किसी का साथ हमारी सबसे से बड़ी जरूरत होता है चाहे वह भ्रम के रूप में ही क्यों ना बना रहे। शायद इसलिए भी शांभवी अमितेश को माफ ना कर सकी लेकिन अपने फैसले खुद न ले पाने के लिए वह खुद को भी नहीं माफ कर सकी थी। दूसरों को माफ करना आसान होता है, अपनों को और खुद को माफ करना सबसे मुश्किल।

अंत मैं वह जाते हुए उस नीले स्कार्फ को पीछे छोड़ देती है, जिसने अपनी किस्मत और शांभवी के फैसले से समझौता कर लिया।

अगली और आखिरी कहानी है मुक्ति । प्रमिला और एयर कमांडर वीडी कश्यप की। प्रमिला को अल्जाइमर था, कश्यप जी को कभी-कभी लगता था कि प्रमिला को संभालने से ज्यादा मुश्किल खुद को और उनकी बेटी को संभालना था। उससे ज्यादा मुश्किल उन दोस्तों,रिश्तेदारों, शुभचिंतकों की भीड़ को संभालना था जो गाहे-बगाहे विशेष टिप्पणियां बांटने उनके घर आ धमकते थे। धीरे-धीरे प्रमिला की हालत बिगड़ती जा रही थी। एक शाम तो प्रमिला ने उन्हें पहचाना ही नहीं। उस दिन वे उसके लिए पहली बार अजनबी थे और उस दिन ऐसे अजनबी हुए की इतने सालों तक तिनका तिनका जोड़ा हुआ विश्वास एक झटके में धराशाई हो गया। वह अपने बच्चों के बचपन को याद करती थी । कश्यप जी कभी-कभी भावुक होकर अपनी बेटी से कहते थे, कि कभी कभी तुम औरतों की तरह जी भर कर रो लेना चाहता हुं। लेकिन मेरी टूटने से क्या संभलेगा। जब टूटने लगता हूं, तो वह चालीस साल याद करता जो तुम्हारी मां ने हमें दिए बिना शिकायत। उसकी बीमारी में मेरी यह सेवा मेरा प्रायश्चित है बल्कि मेरे लिए रिडेंप्शन, मेरी मुक्ति का एक रास्ता है।

यह थे इस किताब से कुछ कहानियों के कुछ अंश। ऐसी और भी कहानियां है इस किताब में।ये वो कहानियां थी जो एक पाठक होने में नाते मुझे काफी पसंद आई।

वहीं सिगरेट का आखिरी कश और प्लीज डू नॉट डिस्टर्ब इस कथा संग्रह की मुझे दो कमजोर कड़ियां लगीं।

देखा जाए तो किताब की शुरुआत लेखिका ने रूममेट्स कहानी के साथ जो अपनी जिंदगी नई की शुरुआत करने आई है। और अंत मुक्ति से जहां इंसान अपनी जिम्मेदारियां और समस्याओं से मुक्त हो जाता हैं। बहुत ही सुंदर चयन किताब को शुरुवात और अंत देने का। लेखिका ने दिल्ली,मुंबई,बिहार सब जगह के माहौल को दिखाया हैं।

हर कहानी एक दूसरे से अलग है, जो कि मस्तिष्क पर छाप छोड़ती है।

बिसेसर बो की प्रेमिका कहानी सामाजिक ढांचे की कड़वी सच्चाइयों को उजागर करती है। वही देखवकी कहानी यह बताती है कि कैसे सामाजिक दबाव लड़की के परिवार पर होता है और रिश्ते को अधिकतर व्यापार की तरह देखा जाता है। सहयात्री कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हम कितने अनजान होते हुए भी एक-दूसरे से जुड़ सकते हैं।"

मर्ज जिंदगी, इलाज जिंदगी": कहानी उम्मीद और संघर्ष की प्रेरणा देती हैं।

हाथ की लकीरें": इसमें रनिया और भाभी जी के बीच के रिश्ते को दर्शाया गया है। यह कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हमारी पहचान अक्सर हमारे रिश्तों से ही बनती है।

नीला स्कार्फ": शांभवी और अमितेश की कहानी हमें यह दिखाती है कि कैसे एक छोटी सी वस्तु भी यादों की दुनिया में ले जा सकती है।

"मुक्ति" कहानी रिश्तों की मजबूती और एक-दूसरे के प्रति समर्पण की बात करती है।

देखा जाए तो लेखिका के पात्र सोच रहे हैं कि आपके बगल में बैठी एक महिला या लड़की क्या सोच रही हो सकती है और यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि यह बाहरी दुनिया से छुपा रहे केवल उसके भीतर ही कैद रहे। नीला स्कार्फ ने उन विचारों को बाहर आने का रास्ता दिया है जिससे उनकी उपस्थिति महसूस की जा सके।

यह किताब जितना किसी लडकी या औरत के लिए जरूरी है उतनी ही मर्दों के लिए भी जरूरी है। इसके माध्यम से शायद वो औरतों के मन की मुश्किलों को समझ पाए और औरतों को समझने का एक नया दृष्टिकोण प्राप्त कर सके।

इस किताब को पढ़ने के बाद कई दिनों तक स्कार्फ का नीला रंग आखों में हिलोर लेता रहेगा। मानो तो यह एक किताब हैं, सोचो तो किसी के जीवन का एक हिस्सा और समझो तो छोटी छोटी कहानियों में बड़ी सीख।

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