Photo by Paz Arando on Unsplash

संसार एक ऐसे मोड़ पर खडा जहाँ से बर्बादी ही बर्बादी दिखाई दे रही है. कुछ इंसान सारी धरती की संपदा को हथिया कर, सारी धरती वासियों को विनाश की कगार पर ले जा रहे हैं. विनाश को उन्नति समझा कर अपना कारोबार बढ़ा रहे हैं. शिक्षा के नाम पर विनाशकारी गतिविधि करवा रहे हैं. शिक्षा का व्यापार बना रहे हैं.

नफरत, नुक्सांन का जहर फैला रहे हैं.

बढ़ता प्रदूषण, पर्यावरण का असंतुलन, एक ओर धन की अंधाधुनध दौड़ दूसरी ओर बिमारी, भुखमरी, युद्ध और प्राकृतिक आपदा.

न्युन्तम से उच्चतम स्तर, स्थानीय से ले कर वैश्विक स्तर पर चिंता व्यक्त की जाती है. चर्चा और गोष्ठी होती है.

कई विशेष दिवस, जैसे जल दिवस, पर्यावरण दिवस, मृदा दिवस, वृक्ष दिवस, गौरिया दिवस, पशुपालन दिवस, अन्न दिवस बहुत ही हर्ष व उल्लास से मनाये जाते है. कई लोक पर्व कृषि से संबंधित हैं. बिहु, संक्रांति, बैसाखी, पोंगल, हरेला, फुलि, लोहरी,विर्वरष्, देश के कोने कोने में किसी ना किसी रूप में हर परिवार के लिए आनंद लाता है. जनमानस इन पर्व को समय समय पर मनाते हैं.

एक से एक काम कृषि और जंगल से जुडे हैं.

दैनिक भोजन, वस्त्र, काष्ठ हस्त कला, दवाई उद्योग, दुग्ध उद्योग और समय पर वर्षा सब कृषि से परोक्ष या सीधे रूप से जुड़ी है.

एफ ए ओ विश्व स्तरीय संस्था है जो कृषि पर ध्यान देती है.

औद्योगिक क्रांति ने एक साधारण पर आत्म निर्भर किसान को मजदूर और गुलाम बना दिया.

मृदा का स्नेही, मुद्रा को पाने की होड़ में तन, मन बेचने को मजबूर हो गया.

उस की जमीन उस से ले ली गयी, कभी जबरदस्ती से, कभी लालच से, कभी मजबूरी में, कभी कुछ पाने की ललक में.

नौकरी, नौकरी और नौकरी ने स्वतंत्र को पराधीन कर दिया. पराधीनता से स्वतंत्रता पाने के लिए युद्ध हुए. धरती का एक टुकडा पाने को खून खराबा, मार काट को उचित व न्याय संगत बताया गया. लोगों को उकसाया गया. धर्म गुरु, राजनेता, विचारक, दारशनिक, भविष्य दृष्टा अपने अपने तारिके, अपने दृष्टिकोंड अनुसार पर्यावरण का महत्व समझा रहें हैं, पर पर्यावरण पर होनेवाले अत्याचार को कम नहीं कर पा रहे. प्रति दिन, प्रति वर्ष, स्थिति और भयावह हो रही है.

कुछ लोग गाँव, कुछ देश और कुछ अपने ग्रह पृथ्वी से पलायन की सोच रहे हैं.

समस्या विकट है, समाधान आसान नहीं.

हर अवेशन, हर खोज, स्थिति को जटिल कर रही है.

इस कारण बहुत कम उमर में लोग, बच्चों को अवसाद जैसी भयंकर स्थिति से गुजरना पड़ रहा है. उन पर इतना दबाव है कि वो किसी की या अपनी जान ले रहे हैं. उन का धैर्य एक क्षण में टूट जाता है. वो एक अंतहीन दौड़ का हिस्सा बनते जा रहे है. इस दौड़ से क्या हासिल होगा कोई नहीं जानता, ना परिवार, ना देश, ना समाज, फिर भी दौड़ चालू है. कोई पिछे नहीं हटना चाहता, हटा, तो धक्का खा कर फिर आगे.

धैर्यविहीन समाज को सम्भालने के लिए फिर से माटी से जोड़ना होगा.

किताबी ज्ञान, धनोपारजन के महत्व के साथ ये भी सिखाना होगा कि अन्न, जल, वायु ही जीवन है. हमारे रहने को एक ग्रह है. एक के आगे कितने शून्य हैं, का महत्व तब है जब एक रहेगा.

हर नागरिक के लिए कृषि कार्य अनिवार्य हो तो हर व्यक्ति इस धरती, वायु, जल, जंगल, अन्न की आवश्यकता से परिचित होगा.

१७ से १९ वर्ष आयु, ऊर्जा से ओत प्रोत होती है.

ये दो वर्ष पृथ्वी और उस पर बस्ते प्राणी मात्र को समर्पित होने चाहिये.

हर नागरिक को प्रयोगात्मक कृषि से जोड़ देना होगा. खेत जोतो, बीज रोपो, फसल की सेवा करो, पानी दो, खर पतवार निकालो, फसल काटो, भंडारां करो, बीज और समय का महत्व समझो. धूप में पसीना, बारिश में कपड़ा ना सुखै, ठंड में कपकपाती काया से पूस की रात काट. जानवर के साथ जानवर बन, मिट्टी को गले लगा, आग पानी से नहा. पसीने की बूँद को ओस से मिला कर कनक, धान, बाजरा, मटर, आलू, सूत, कपास उगा. एक बार ऊगा ले, कभी युद्ध ना जायेगा. सर्जन का दर्द समझने वाला नुक्सान कभी नहीं पहुंचा पायेगा.

बीज में अपार संभावना है ये जान लो, कार्य समय पर किया ही श्रेष्ठ है समझ लो.

धरती से धैर्य, वृक्ष से परिवर्तन अवश्यम भावी है का ज्ञान लो.

ना कोई अन्न, जल बर्बाद करेगा ना पेड़ पौधा नष्ट करेगा.

एक प्रचलित कथा के अनुसार एक बच्चा प्रति दिन पिता से पैसा लेता और अनाप शनाप खर्च करता.

पिता ने उसे आदेश दिया कि वो रोज़ एक रुपिया लाये.

बच्चा किसी से मांग कर रुपिया लाता. पिता रुपिया नदी में डाल देते. ये क्रम बहुत दिन चला. रुपिया देने वाले न नुकूर करने लगे. बच्चे को अपनी मेहनत से रुपिया लाना पड़ा. उस दिन जब पिता नदी की ओर चले तब बालक रोने लगा. उसै रुपये का फेका जाना अच्छा ना लगा. श्रम का महत्व समझ आ गया.

उसी प्रकार दो वर्ष धरती कृषि से जुड़ा कार्य कर के हर नागरिक अपने पर्यावरण का महत्व समझ जायेगा.

ये दो वर्ष जीवन का आधार बन जाए, सब नागरिक समान हो जाये, ना कोई ऊंचा, ना कोई नीचा. सब धरतीवासी.

अपनी मेहनत से उगा एक दाना अनमोल बहुमुल्य लगेगा. अपने हाथ से लगे पेड पर फल दो चार वर्ष बाद चेहरे को अश्रु धारा से भिगो देगा.

जब युवा कृषि क्षेत्र में दो वर्ष समय बितायेगे तब सब सुख सुविधा बिजली, पानी, वैई-फाई, अच्छी सड़क, स्वस्थ्य सेवा, वैज्ञानिक सोच, शोधशाला, बस गाड़ी, भी वहाँ पहुॅचाने का प्रयास होगा. उस माटी की खुशबू एक मधुर स्मृति बन कर जीवन में भला करने की प्रेरणा देगी. शहर और ग्राम की दूरी कम होगी. उर्जवांन, पढ़ी लिखी सोच वाले युवा भविष्य की जिम्मेदारी उठाने को सक्षम होंगे.

हर कोई आने वाले समय में कृषि में योग दान देता रहे तो धरती और उस पर बसा जीवन, पौधा, पशु, मनुष्य सब बच जाये.

इस के पश्चात् जो भी अपना बहुमूल्य समय कृषि को दे उस को प्रोत्सहन व सम्मान दिया जाये.

किसान से कंधा मिला कर ही सच्ची प्रगति, विकास और पर्यावरण की सेवा हो सकती है.

द्वि वर्षीय अनिवार्य कृषि कार्य

लेख लिखने के लिए लिख लीजये पर अंतर आत्मा से उस पर विश्वास करना अलग बात है.

संसार एक ऐसे मोड़ पर खडा जहाँ से बर्बादी ही बर्बादी दिखाई दे रही है. कुछ इंसान सारी धरती की संपदा को हथिया कर, सारी धरती वासियों को विनाश की कगार पर ले जा रहे हैं. विनाश को उन्नति समझा कर अपना कारोबार बढ़ा रहे हैं. शिक्षा के नाम पर विनाशकारी गतिविधि करवा रहे हैं. शिक्षा का व्यापार बना रहे हैं.

नफरत, नुक्सांन का जहर फैला रहे हैं.

बढ़ता प्रदूषण, पर्यावरण का असंतुलन, एक ओर धन की अंधाधुनध दौड़ दूसरी ओर बिमारी, भुखमरी, युद्ध और प्राकृतिक आपदा.

न्युन्तम से उच्चतम स्तर, स्थानीय से ले कर वैश्विक स्तर पर चिंता व्यक्त की जाती है. चर्चा और गोष्ठी होती है.

कई विशेष दिवस, जैसे जल दिवस, पर्यावरण दिवस, मृदा दिवस, वृक्ष दिवस, गौरिया दिवस, पशुपालन दिवस, अन्न दिवस बहुत ही हर्ष व उल्लास से मनाये जाते है. कई लोक पर्व कृषि से संबंधित हैं. बिहु, संक्रांति, बैसाखी, पोंगल, हरेला, फुलि, लोहरी,विर्वरष्, देश के कोने कोने में किसी ना किसी रूप में हर परिवार के लिए आनंद लाता है. जनमानस इन पर्व को समय समय पर मनाते हैं.

एक से एक काम कृषि और जंगल से जुडे हैं.

दैनिक भोजन, वस्त्र, काष्ठ हस्त कला, दवाई उद्योग, दुग्ध उद्योग और समय पर वर्षा सब कृषि से परोक्ष या सीधे रूप से जुड़ी है.

एफ ए ओ विश्व स्तरीय संस्था है जो कृषि पर ध्यान देती है.

औद्योगिक क्रांति ने एक साधारण पर आत्म निर्भर किसान को मजदूर और गुलाम बना दिया.

मृदा का स्नेही, मुद्रा को पाने की होड़ में तन, मन बेचने को मजबूर हो गया.

उस की जमीन उस से ले ली गयी, कभी जबरदस्ती से, कभी लालच से, कभी मजबूरी में, कभी कुछ पाने की ललक में.

नौकरी, नौकरी और नौकरी ने स्वतंत्र को पराधीन कर दिया. पराधीनता से स्वतंत्रता पाने के लिए युद्ध हुए. धरती का एक टुकडा पाने को खून खराबा, मार काट को उचित व न्याय संगत बताया गया. लोगों को उकसाया गया. धर्म गुरु, राजनेता, विचारक, दारशनिक, भविष्य दृष्टा अपने अपने तारिके, अपने दृष्टिकोंड अनुसार पर्यावरण का महत्व समझा रहें हैं, पर पर्यावरण पर होनेवाले अत्याचार को कम नहीं कर पा रहे. प्रति दिन, प्रति वर्ष, स्थिति और भयावह हो रही है.

कुछ लोग गाँव, कुछ देश और कुछ अपने ग्रह पृथ्वी से पलायन की सोच रहे हैं.

समस्या विकट है, समाधान आसान नहीं.

हर अवेशन, हर खोज, स्थिति को जटिल कर रही है.

इस कारण बहुत कम उमर में लोग, बच्चों को अवसाद जैसी भयंकर स्थिति से गुजरना पड़ रहा है. उन पर इतना दबाव है कि वो किसी की या अपनी जान ले रहे हैं. उन का धैर्य एक क्षण में टूट जाता है. वो एक अंतहीन दौड़ का हिस्सा बनते जा रहे है. इस दौड़ से क्या हासिल होगा कोई नहीं जानता, ना परिवार, ना देश, ना समाज, फिर भी दौड़ चालू है. कोई पिछे नहीं हटना चाहता, हटा, तो धक्का खा कर फिर आगे.

धैर्यविहीन समाज को सम्भालने के लिए फिर से माटी से जोड़ना होगा.

किताबी ज्ञान, धनोपारजन के महत्व के साथ ये भी सिखाना होगा कि अन्न, जल, वायु ही जीवन है. हमारे रहने को एक ग्रह है. एक के आगे कितने शून्य हैं, का महत्व तब है जब एक रहेगा.

हर नागरिक के लिए कृषि कार्य अनिवार्य हो तो हर व्यक्ति इस धरती, वायु, जल, जंगल, अन्न की आवश्यकता से परिचित होगा.

१७ से १९ वर्ष आयु, ऊर्जा से ओत प्रोत होती है.

ये दो वर्ष पृथ्वी और उस पर बस्ते प्राणी मात्र को समर्पित होने चाहिये.

हर नागरिक को प्रयोगात्मक कृषि से जोड़ देना होगा. खेत जोतो, बीज रोपो, फसल की सेवा करो, पानी दो, खर पतवार निकालो, फसल काटो, भंडारां करो, बीज और समय का महत्व समझो. धूप में पसीना, बारिश में कपड़ा ना सुखै, ठंड में कपकपाती काया से पूस की रात काट. जानवर के साथ जानवर बन, मिट्टी को गले लगा, आग पानी से नहा. पसीने की बूँद को ओस से मिला कर कनक, धान, बाजरा, मटर, आलू, सूत, कपास उगा. एक बार ऊगा ले, कभी युद्ध ना जायेगा. सर्जन का दर्द समझने वाला नुक्सान कभी नहीं पहुंचा पायेगा.

बीज में अपार संभावना है ये जान लो, कार्य समय पर किया ही श्रेष्ठ है समझ लो.

धरती से धैर्य, वृक्ष से परिवर्तन अवश्यम भावी है का ज्ञान लो.

ना कोई अन्न, जल बर्बाद करेगा ना पेड़ पौधा नष्ट करेगा.

एक प्रचलित कथा के अनुसार एक बच्चा प्रति दिन पिता से पैसा लेता और अनाप शनाप खर्च करता.

पिता ने उसे आदेश दिया कि वो रोज़ एक रुपिया लाये.

बच्चा किसी से मांग कर रुपिया लाता. पिता रुपिया नदी में डाल देते. ये क्रम बहुत दिन चला. रुपिया देने वाले न नुकूर करने लगे. बच्चे को अपनी मेहनत से रुपिया लाना पड़ा. उस दिन जब पिता नदी की ओर चले तब बालक रोने लगा. उसै रुपये का फेका जाना अच्छा ना लगा. श्रम का महत्व समझ आ गया.

उसी प्रकार दो वर्ष धरती कृषि से जुड़ा कार्य कर के हर नागरिक अपने पर्यावरण का महत्व समझ जायेगा.

ये दो वर्ष जीवन का आधार बन जाए, सब नागरिक समान हो जाये, ना कोई ऊंचा, ना कोई नीचा. सब धरतीवासी.

अपनी मेहनत से उगा एक दाना अनमोल बहुमुल्य लगेगा. अपने हाथ से लगे पेड पर फल दो चार वर्ष बाद चेहरे को अश्रु धारा से भिगो देगा.

जब युवा कृषि क्षेत्र में दो वर्ष समय बितायेगे तब सब सुख सुविधा बिजली, पानी, वैई-फाई, अच्छी सड़क, स्वस्थ्य सेवा, वैज्ञानिक सोच, शोधशाला, बस गाड़ी, भी वहाँ पहुॅचाने का प्रयास होगा. उस माटी की खुशबू एक मधुर स्मृति बन कर जीवन में भला करने की प्रेरणा देगी. शहर और ग्राम की दूरी कम होगी. उर्जवांन, पढ़ी लिखी सोच वाले युवा भविष्य की जिम्मेदारी उठाने को सक्षम होंगे.

हर कोई आने वाले समय में कृषि में योग दान देता रहे तो धरती और उस पर बसा जीवन, पौधा, पशु, मनुष्य सब बच जाये.

इस के पश्चात् जो भी अपना बहुमूल्य समय कृषि को दे उस को प्रोत्सहन व सम्मान दिया जाये.

किसान से कंधा मिला कर ही सच्ची प्रगति, विकास और पर्यावरण की सेवा हो सकती है.

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