( इंसान को सबसे अधिक बुद्धिमान प्राणी माना जाता है, जो प्रेम, दया और करुणा का संदेश देता है। लेकिन आज का इंसान अपने स्वार्थ, लालच और बुरी इच्छाओं के चलते अपनी ही मर्यादाओं को भूलता जा रहा है। इसके विपरीत, जानवर अपनी आवश्यकताओं और स्वभाव के अनुसार सीमाओं में बंधा होता है, वह बिना वजह किसी को हानि नहीं पहुँचाता। यह भी सच है कि इंसान ही स्वार्थ और हिंसा की राह पर चलकर अपने विनाश की ओर बढ़ रहा है।
जानवर भूख लगने पर ही शिकार करता है और अपनी सीमाओं का आदर करता है, जबकि इंसान अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। यह कविता मानव स्वभाव की कमजोरियों को उजागर करते हुए हमें सोचने पर मजबूर करती है कि असली दरिंदा कौन है - जानवर या इंसान?
अंततः यह कविता एक संदेश देती है कि इंसान को अपने भीतर की करुणा, प्रेम और दया को जगाना चाहिए, ताकि वह अपने स्वभाव और चरित्र में सुधार कर सके। )
इंसान जब दरिंदा बन जाए, तो जानवर कहलाता है,
पर सच कहूँ, तो जानवर अपनी हद में रहता है।
जानवर कभी बेवजह न मारता, न छल करता,
पर इंसान हर बुरी चाहत का शिकार बनता है।
जानवर जब भूखा होता, तभी शिकार करता है,
इंसान तो भूख के बिना भी खून से खेलता है।
उसकी आँखों में हवस, दिल में नफरत जलती,
जो प्यार सिखाने आया था, वही अब हिंसा पलती।
जंगल का राजा भी नियमों को मानता है,
पर इंसान, अपने नियम खुद ही तोड़ता है।
पशु नितांत स्वभाव से निर्दोष हैं, सीधे-सादे,
पर इंसान लालच में फँस, खुद को ही मिटा दे।
जो पशु केवल अपना पेट भरता,
वह इंसान, दूसरे के हिस्से पर भी हक करता।
जानवर तो मौन में भी संदेश दे जाता है,
इंसान बोलकर भी, दूसरों को रुलाता है।
वो प्यार, दया से दूर, एक अंधेरे में खोता है,
जानवर से भी बुरा, इंसान बस बर्बाद होता है।
दूसरों की जान ले, अपना स्वार्थ पूरा करता,
उसे कभी तो अपने कर्मों का एहसास न होता।
हर रिश्ते को तुच्छ, और हर वादा झूठा मानता,
जो खुद को श्रेष्ठ कहे, वो ही बर्बादी में डूबा रहता।
क्योंकि जानवर अपनी मर्यादा में रहता सदा,
पर इंसान, अपनी सीमाएँ हर पल तोड़ता।
आखिर, कौन है असली दरिंदा, सोचो जरा,
क्योंकि जानवर भी प्रेम से भर सकता है धरा।
इंसान ही अपने स्वार्थ में डूब, भटक जाता है,
जानवर से भी बुरा बन, जीवन की राह खोता है।
दया, प्रेम और करुणा भूलकर, हिंसा को अपनाता,
इंसान अपने हाथों से, खुद को ही मिटाता।
अंत में बस यही कहूँ, कि ये सच समझो गहरा,
जानवर नहीं, इंसान है जो बनता है कहर सहरा।