( यह कविता “गर मुकद्दर बुलन्द होता...” जीवन के संघर्षों और आत्मनिर्भरता की शक्ति को उजागर करती है। यदि भाग्य अनुकूल होता, तो शायद जीवन अधिक आरामदायक होता, लेकिन असल पहचान तो कठिनाइयों और ठोकरों से ही बनती है। मेहनत, आत्मबल और जीवन के अनुभवों ही हमें संवेदनशील एवं सशक्त बनाते हैं
सच्चा सुख और आत्मसंतोष केवल संघर्ष से तपकर ही पाया जा सकता है, न कि केवल किस्मत के सहारे। )
गर मुकद्दर बुलन्द होता...
गर मुकद्दर बुलन्द होता, तो क्या होता?
शायद महलों में मेरा बसेरा होता।
मखमली बिस्तर पर नींदें आतीं,
और हर ख्वाहिश पल में पूरी हो जाती।
गर मुकद्दर बुलन्द होता, तो क्या होता?
शायद राहों में फूल ही फूल बिछे होते।
कभी काँटों की चुभन न सहनी पड़ती,
न मुश्किलों की दीवारें खड़ी होतीं।
मगर आज जो हूँ, वो उस मुकद्दर का नहीं,
बल्कि ठोकरों की दी हुई पहचान है मेरी।
हर नाकामी एक नया सबक सिखा गई,
हर गिरकर उठने में एक नई उड़ान है मेरी।
वो जो शोहरत की चमक है आँखों में,
ये जो दौलत है हाथों की रेखाओं में,
मुझे यूं ही विरासत में नहीं मिली,
ये तो मेरे हुनर की ही तो देन ठहरी।
कभी रातों की तन्हाई में सोचती हूँ,
अगर सब कुछ आसानी से मिल जाता,
तो क्या दिल को वो सुकून मिल पाता,
जो आज अपनी मेहनत से पाया है मैंने?
शायद तब ख्वाहिशें पलतीं, पर प्यास न बुझती,
हर चीज़ होकर भी कुछ कमी सी रहती।
संघर्ष की आग में तपकर जो निखार आया है,
वो शायद आराम की छाँव में कभी न आता।
ये जो रिश्तों की गर्माहट है सीने में,
ये जो अपनों का साथ है हर राह में,
ये सब मुश्किलों में ही तो पहचाने गए,
वरना भीड़ में कौन किसका होता?
गर मुकद्दर बुलन्द होता, तो शायद,
मैं भी औरों की तरह बस जी रही होती।
किसी मंज़िल की चाह न होती,
न कुछ पाने की कोई लगन होती।
पर ये ठोकरें ही तो मेरी रहनुमा बनीं,
हर दर्द ने मुझको मजबूत बनाया।
नाकामयाबी की काली रातों ने ही,
सफलता के सुनहरा दिन दिखलाया।
आज जो भी हूँ, अपनी मेहनत से हूँ,
अपने हौसलों की उड़ान से हूँ।
मुकद्दर तो बस एक खाली पन्ना था,
जिस पर मैंने अपनी कहानी खुद लिखी है।
इसलिए शिकवा नहीं उस मुकद्दर से,
जिसने मुझे मुश्किलों के हवाले किया।
बल्कि शुक्रगुजार हूँ उन ठोकरों का,
जिन्होंने मुझे जीना सिखा दिया।
गर मुकद्दर बुलन्द होता, तो शायद,
आज ये कविता भी न लिख पाती मैं,
क्योंकि अनुभवों की गहराई कहाँ से लाती,
अगर ज़िंदगी इतनी आसान होती तो?