Image by Florent Trouvé from Pixabay

पानी कहता 
"मैं सहता हूँ सबको,
जो हल्का है मुझसे,
उसे अपने ऊपर
सिर आँखों पे रखता हूँ।
तिनका हो या पत्ता,
मैं उन्हें डुबाता नहीं,
खेलता हूँ उनसे,
हर लहर में बहलाता हूँ।"
पर एक दिन आई रुई 
नरम, कोमल, हल्की सी,
जैसे बादल का टुकड़ा,
जैसे किसी सपने की फुहार।
बड़ी उम्मीदों से
कूदी वो पानी में,
सोचा था तैरूँगी,
लहरों संग खेलूँगी।
पर क्या हुआ?
पानी ने छूते ही
खींच लिया उसे नीचे,
जैसे कोई भार बन गई हो
उसके हल्केपन की सज़ा सी।
रुई ने कांपते स्वर में कहा 
"हे जल!
मैं तो हूँ सबसे हल्की,
हवा तक उड़ाती है मुझे।
तू क्यों नहीं तैरने देता?
क्या मेरी मासूमियत
तुझे चुभती है?"
जल चुप था,
पर उसकी लहरों में
कुछ अनकहा बह रहा था।
फिर धीमे स्वर में बोला 
"रुई,
तेरा दोष नहीं,
तेरी कोमलता ही तेरा भार है।
तू भीग जाती है,
हर बूँद सोख लेती है।
तू खुद को खो देती है
मुझे समझने की चाह में।
और मैं,
मैं बस वही करता हूँ
जो नियम कहते हैं।"
रुई मुस्काई,
पर आंखें नम थीं 
"काश!
हल्कापन सिर्फ वजन का होता,
भीतर के भावों का नहीं।
काश!
तू समझ पाता
मैं तैरने नहीं,
बस साथ बहने आई थी।"
उस दिन से
पानी की हर लहर
थोड़ा और गहराई से बहती है,
और रुई?
वो अब भी डूबती है
पर मुस्कुराते हुए 
क्योंकि उसे मालूम है
डूबने में भी
कभी-कभी तैरने से ज्यादा
सुकून होता है।

.    .    .

Discus