विद्या का जब अहंकार बढ़ा,
तो विधि ने रचना की नई कहानी,
मूढ़ बने जब कवि महाकवि,
तब जग में फैली यह बख़ानी।
~ विद्योत्तमा का अभिमान ~
विद्या में निपुण, रूप में अनुपम,
विद्योत्तमा थी ज्ञान की रानी,
शास्त्रार्थ में जो आए सम्मुख,
हार गए सब ज्ञानी-अज्ञानी।
राजा ने जब चाहा उसका,
योग्य वर से हो विवाह,
बुद्धिमानों की सभा बुलाई,
पूछे सबके मन के भाव।
पर विद्योत्तमा गर्व से बोली—
"मुझसे बुद्धि-युद्ध करेगा जो,
वही होगा मेरा स्वामी,
शब्दों के शस्त्र संग जो खेले,
वही मेरा जीवन-साथी।"
शास्त्रार्थ हुए, विद्वान हारे,
कोई न उसका उत्तर दे,
तब पंडितगण चिंतित होकर,
नई युक्ति की खोज में रहे।
~ एक मूर्ख की खोज ~
गांव के बाहर एक मूर्ख रहता,
काठ काटता दिन-रैन,
बोलने में मंद, बुद्धि से भोला,
जग कहता उसको "अज्ञानी" नैन।
पंडित बोले, "बस यही उचित है,
इसको हम विद्वान बनाएँ,
मौन रहेगा, संकेत करेगा,
बुद्धि का अभिनय दिखलाएँ।"
काटते पेड़, गाते थे गीत,
न था कोई जग का बोध,
ले गए उसे राजसभा में,
पहनाए वस्त्र, रचाए स्वांग।
~ कालीदास का विवाह ~
विद्योत्तमा ने जब संकेत किया,
पंडितों ने उसकी व्याख्या की,
बोल न पाया वह भोला पुरुष,
विद्या की छवि वहां सजी।
संकेतों से विजय मिली जब,
विद्योत्तमा हर्षित हुई,
विवाह बंधन में वह बंधी,
यह ज्ञानी से अज्ञानी जुड़ी।
पर जब सच का भेद खुला,
और मूर्खता पराजित हुई,
तब क्रोध ज्वाला में जलती वह,
पति को घर से बाहर धकेल चली।
~ आत्मबोध और ज्ञान की खोज ~
अपमानित हो कालीदास रोए,
अपनी मूर्खता पर पछताए,
चले वन में, किए तपस्या,
सरस्वती को मन से बुलाए।
वाणी ने दी उनको विद्या,
शब्दों में बहा सागर ज्ञान,
काट चुका जो काठ जगत में,
वह अब रचने लगा पुराण।
रघुवंश, कुमारसंभव,
मेघदूत की रचनाएँ आईं,
शब्दों में अमृत बहा उन्होंने,
शास्त्रों में अमरता पाई।
~ पुनर्मिलन और सम्मान ~
जब लौटा वह ज्ञानी बनकर,
तब विद्योत्तमा ने शीश झुकाया,
"क्षमा करें प्रभु, अब मैं जानूँ,
आप ही मेरा सत्य समाया।"
बोले कालीदास, "ज्ञान सहेजो,
अहंकार में न इसे गवाओ,
शब्दों का जो करता अपमान,
वह पतन की ओर ही पाता स्थान।"
~ उपसंहार ~
विद्या का सम्मान वही जो,
अहंकार से दूर रहे,
ज्ञान वही जो जग को बाँटे,
अपने भीतर न चूर रहे।
कालीदास का जीवन गाथा,
आज भी देती यह सिखलाती,
ज्ञान, तपस्या, विनय जिसे हो,
वही अमरता को है पाती।

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