Photo by rminedaisy on Unsplash
कपास के पेड़ पर चिड़िया नहीं आती,
हालाँकि वह भी हरा है, ऊँचा है,
छाँव देता है, हवा में लहराता है,
मगर उसका मन — रूई जितना कोमल,
उतना ही अस्थिर और उलझा हुआ।
चिड़िया जानती है —
कोमलता जरूरी है, मगर वह भरोसा नहीं देती।
जहाँ जड़ें गहरी ना हों,
जहाँ शाखाएँ अपने भार से डरें,
वहाँ घोंसला नहीं टिका करते।
कपास, जैसे हम —
मुलायम बातों में सजे हुए,
बाहर से मुस्कुराते, भीतर उलझे हुए।
हममें भावनाएँ हैं,
मगर स्थिरता नहीं।
हम प्रेम करते हैं —
पर टिकना नहीं जानते।
चिड़िया उड़ जाती है उन वृक्षों की ओर
जो समय के थपेड़ों में झुके जरूर हैं,
मगर गिरे नहीं।
पीपल, नीम, बरगद —
जिनकी छाल पर समय की कहानी लिखी है,
जिनके पत्तों पर अनुभव की धड़कन है।
कपास का पेड़ पूछता है —
“क्यों नहीं आती चिड़िया मुझ पर?”
समाज उत्तर देता है —
“तू केवल उपयोगी है, अपनत्व नहीं।”
जीवन कहता है —
“तेरे अंदर गहराई नहीं, केवल मुलायम सतह है।”
हम सब कहीं ना कहीं कपास हैं —
बोलते बहुत हैं, सुनते कम हैं।
दिखते बहुत हैं, टिकते नहीं।
सपनों की तरह छूते हैं,
पर भरोसे की ज़मीन नहीं देते।
कभी-कभी हम सभी कपास से हो जाते हैं —
नरम बातों, मीठी हँसी और सजावटी व्यवहार में
इतने उलझ जाते हैं कि
भीतर के अकेलेपन को कोई समझ ही नहीं पाता।
और चिड़िया?
वह आत्मा है —
जो सच्चाई के वृक्ष पर बैठती है,
जो उस मन को चुनती है
जहाँ दर्द भी हो, मगर दिखावटी नहीं।
जहाँ कोमलता के पीछे मजबूती हो,
जहाँ मौन भी संवाद बने।
तो सोचो —
क्या तुम वो कपास हो
जिसे हर कोई छूकर चला जाता है?
या वो वृक्ष
जिस पर चिड़िया एक दिन लौट आती है...
घर बनाने के लिए?
तुमने सोचा - - - ?
तुम्हारे पास सिर्फ छाया है,
या कोई चिड़िया भी रहती है