किसी महल की चुप दीवारों में,
थी एक ममता साँसों में बसी,
ना शंख बजे, ना गीत उठे,
जब एक माँ की बली थी सजी।

न गोद में झूला झूल सका,
न लोरी में चैन कभी आया,
जिसने बेटे को नहीं बचाया,
बल्कि उसका शीश सजाया।

नाम था उसका — पन्ना धाय,
हृदय में जिसकी आग धधकती,
राजभक्ति, ममता और धर्म,
हर साँस में साथ पलती।

रक्षक बनी वो मातृत्व की,
रणभूमि में छाया बसा दिया,
अपने लाल का जीवन देकर,
राजपुत्र को अमर बना दिया।

कहाँ की ममता थी वह माँ की?
जो पुत्र को शय्या पर सुला दे,
जानते हुए कि भोर का सूरज,
अब उस मुख पर नहीं खिलेगा।

पर आँखों में आँसू भी न थे,
ना स्वर में कोई काँप थी,
बस एक माँ की रीढ़ बनी वो,
जिसमें युगों की ज्वाल जगी थी।

राज्य बचे, स्वाभिमान बचे,
एक सूरज फिर से निकला था,
माँ के रक्त से सींचा पौधा,
इतिहासों में चिर-जीवित मिला था।

माँ ऐसी भी होती है…
जो आँचल से छाया नहीं देती,
बल्कि आँचल ही रण में बिछा देती है,
अपने भावों की चुप मूरत से,
युगों की मूरत रचा देती है।

आज भी जब कोई माँ,
धैर्य से खड़ी समय के आगे,
संघर्षों से हार नहीं मानती,
तो पन्ना धाय की परछाई सी लगती है।

माँ होना केवल स्नेह नहीं,
कभी-कभी बलिदान भी होता है,
और माँ शब्द का असली अर्थ,
वहीं कहीं पन्ना में सोता है।

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