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एक माँ की आत्म कथा - - -
( मर्दस डे पर विशेष रचना )
मैं एक माँ हूँ
(जब कोई पूछे — तुमने किया क्या है?)

कभी मेरी भी आँखों में ख़्वाब थे,
उड़ने की चाह थी,
कुछ कर दिखाने का जुनून था।
कलम थी हाथों में,
और मंज़िलें मेरी राहों में।

मगर फिर एक दिन —
छोटे से हाथ ने मेरी उँगली थामी,
और उसी पल,
मैंने अपनी दुनिया बदल दी।

मैंने अलार्म घड़ी की जगह बच्चे की रोने की आवाज़ को चुना,
कॉर्पोरेट मीटिंग्स की जगह
स्कूल की पैरेंट्स टीचर मीटिंग्स में नाम दर्ज कराया।
कॉफी की चुस्कियों के बदले
ठंडी हो चुकी चाय में सुकून ढूँढा,
और कैरियर की सीढ़ियों को छोड़
किचन की चौखट को अपनी ऊँचाई बना लिया।

हाँ, मैंने अपने सपनों को तह कर
तेरे स्कूल बैग में रख दिया था,
ताकि जब तू बड़े सपने देखे,
तो मेरी नींदों का कोई हिसाब न रहे।

कभी मेरी भी पहचान थी…
नाम था, हुनर था,
मगर फिर तेरे नाम के आगे
माँ लिखा गया,
और मुझे कुछ और चाहिए भी नहीं था।

लोग पूछते हैं आज —
"तुमने किया ही क्या है ज़िंदगी में?"
मैं मुस्कुरा देती हूँ…
क्योंकि कैसे बताऊँ कि
हर बुखार में जागी रात,
हर आँसू में छुपा आशीर्वाद,
हर थाली में परोसा प्यार,
वो सब ‘कुछ नहीं’ नहीं होता।

मैंने सीखा है त्याग,
निस्वार्थ प्रेम का अर्थ,
और बिना उम्मीद के जीना।

कभी घर की चौखट,
कभी मंदिर की ज्योति,
कभी स्कूल की बेल,
कभी ताले की चाबी हूँ मैं।
मैंने एक पूरा जीवन रचा है —
तेरे बचपन से लेकर जवानी तक।
तेरे हर पहले शब्द में,
तेरे पहले क़दम में,
तेरे पहले पुरस्कार में —
मैं बसी हूँ।

तो जब कोई पूछे —
"तुमने जीवन में किया क्या है?"
तो मेरा सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है,
और मैं बस इतना कहती हूँ:

"मैं एक माँ हूँ..."
जिसने अपना सब कुछ छोड़ कर,
किसी को सब कुछ बना दिया।

तो हाँ, मैंने त्याग किया है,
पर कोई खालीपन नहीं है इसमें।
क्योंकि मैंने कुछ खोया नहीं,
बल्कि ‘माँ’ बनकर सब कुछ पा लिया।

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