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रोज-रोज यह सुनकर मैं तंग आ गयी -----
तुम्हें तो उठने, बैठने, बोलने की तमीज नहीं,
मेरे बिना तुम्हारी कोई पहचान नहीं,
तुम जैसी गंवार मेरी जीवन संगिनी ----
अपशब्द के शूल प्रहारों, ने कर दिया हृदय पाषाण,
दृढ़ निश्चय किया फिर अब---
नहीं जीऊँगी,नहीं जीऊँगी।
नयी जीऊँगी, नयी जीऊंगी। नयी ऊर्जा नये संकल्प से अलंकृत।
अटल विचारों का हुआ सृजन।
असंख्य के प्रहारों से ही पाषान से बनती मनोहर, उत्कृष्ट, उत्तम मूरत
बदल गई मैं देखना हो हैरान,
शुक्रिया, तुम्हारा ही है योगदान --
अब मेरी अपनी भी है एक नई पहचान।