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नफरत की आग में जलती हूँ,
दर्द और दबाव से मचलती हूँ।
चिंता और शक के घेरे में रहती हूँ,
खुद से और दुनिया से लड़ती हूँ।
विचारों के जंगल में भटकती हूँ,
हर रास्ते पर अकेली चलती हूँ।
नफरत की आंधी में बहती हूँ,
प्यार की मीठी झील को तरसती हूँ।
मेरे अंदर जलती है नफरत की आग,
कुछ कर न सकने का आभास।
क्योंकि विश्वास करना हुआ मुश्किल
मन में उठते हैं हर वक्त कई सवाल
आंखों में नमी, दिल में गहरा दर्द,
क्यों बन गयी , मैं नफरत का शिकार।
जबकि चाहत का होना था अधिकार
अब कहाँ से आएगी बहार,
कैसे करूँ मैं इस नफरत का सामना,
परिरिथतियों का बोझ हैं इतना,
कहाँ जाऊँ, किस राह पर चलूँ?
खुद को नफरत से कैसे बचाऊँ
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