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(सत्य और झूठ का संघर्ष अनादि काल से चला आ रहा है। झूठ चाहे कितना भी आकर्षक और तेज़ हो, वह अंततः क्षणिक होता है, जबकि सत्य अपनी धीमी गति से चलते हुए भी अडिग और स्थायी रहता है। मेरी यह कविता सत्य की सरलता, उसकी अडिगता, और झूठ के छलावे पर प्रकाश डालती है। यह हमें यह समझने का निमंत्रण देती है कि सत्य का पथ कठिन जरूर हो सकता है, लेकिन अंत में वही विजयी होता है। तो आइए, इस कविता के माध्यम से सत्य और झूठ के इस शाश्वत संघर्ष को महसूस करें। )

**सत्य और झूठ**  


झूठ सवार है रथ पर, बग्घी के घोड़े दौड़ाता  
चमकते वस्त्र, मुख पर नकाब, छल से जग को भरमाता।  
हर मोड़ पर, हर राह में, अपना परचम वो लहराए,  
सच की किरणों को चुराकर, अंधकार वो फैलाए।  

सत्य पांव-पांव चलता, धूल भरे पथ पर अकेला,  
न थके, न रुके, न हारे, अडिग उसका हौसला ।  
सत्य न झूठ सा चमकता, न शब्दों का जादू जानता,  
सत्य सांसों में बसता, हर आहट में विश्वास पाता।  

झूठ की रफ्तार तो तेज़ है, पर वो क्षणिक है, अस्थिर है,  
आंखों के आगे पर्दा डालकर, भ्रम की माया रचता है।  
बिना नींव के, झूठ के साम्राज्य का राजमहल बन जाता,  
पर जब समय की हवा चले, बिखर जाए वो माटी सा।
  
सत्य का चलना धीमा है, पर वो कभी नहीं थकता,  
वो रातों को भी जागता है, और सुबह की किरणों में खिलता 
राह चाहे कितनी भी कठिन हो, वो पीछे मुड़कर नहीं देखता,  
सतयुग का हो या कलियुग, सत्य का दीपक नहीं बुझता।

झूठ की बग्घी एक दिन रुकती, और अंधेरे में खो जाती 
सत्य की मंद गति, धीरे-धीरे विजय के निकट पहुँच जाती  
क्योंकि झूठ का भार बहुत है, वो घुटनों पर आ गिरता है,  
सत्य का तो बल है—उसकी सत्यनिष्ठा ही उसकी जीत है।

झूठ के बाज़ार में, हर सौदा सस्ता बिकता,  
हर बात चांदी सी चमकती, हर चेहरा दमकता।  
सत्य खामोशी में भी गूंजता, मन की हर दीवार पर,  
उसकी पहचान अमर है, वो रहता दिल के द्वार पर।

झूठ का जाल एक दिन टूटता, सत्य की धार में कट जाता,  
और तब जो बचता है, वो सत्य का शिखर कहलाता।  
विजय हमेशा उसकी होती, जो सच का ध्वज उठाता,  
सत्य की राह कठिन सही, पर वहीं सच्चा सुख आता।  

  सत्य और झूठ का यह संग्राम, अनादि से अनंत तक चलता,  
पर अंत में वही सच्चा होता, जो सत्य के संग रहता।  
झूठ रथ पर चाहे जितना भागे, सत्य के पांव उसे हर बार पछाड़ते,  
क्योंकि सत्य ही वो दीया है, जो हर युग में उजाला करता

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