जीवन की आपाधापियों में व्यस्त हूँ,
लोग कहते हैं मैं मस्त हूँ,
पर कहाँ मस्त हूँ!
लगता है कोई नया मार्ग बना रहा हूँ,
फिर मुड़कर देखता हूँ तो वही-वही दोहरा रहा हूँ।
चलता हूँ एक छोर से दूसरे छोर तक,
फिर देखता हूँ,
वहीं पड़ा गिड़गिड़ा रहा हूँ।
समस्त संकल्पनाओं के मध्य तुम्हें चाह रहा हूँ,
झूठ नहीं, सच बता रहा हूँ।
ये कहकर तुम्हें बरगला रहा हूँ,
जो न मिला उसे ही चाह रहा हूँ,
जो मिला उसे भुला रहा हूँ।
खुश हूँ, ये जता रहा हूँ,
बस ऐसे ही जिये जा रहा हूँ।
आत्मप्रवंचना में मुस्कुरा रहा हूँ,।।