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जिंदगी की सच्चाई से हो रुबरु।
असलियत सामने खड़ी।
मौत ने तोड़े सारे ख्वाब।
कमबख्त सारी उम्मीदें एक ओर पड़ी।।
न मंजूर थे जो रास्ते।
वो श्मशान तक चले।
घाट न थी खाली अमीरों के लिए भी।
उनकी राख के ढेर भी एक ओर पड़े।।
घाट पर देखो मणिकर्णिका के।
अहम को देता मुहजोर जवाब है।
न है किसी की जिंदगी मीत।
चिताओं पर जलते सबके ख्वाब है।।
राखो के ढेर से सजे देखो कैसे मंजर।
सुकून से छुआ हो जैसे कोई खंजर।
किया था जो भी जिंदगी में इक्कठा।
अब चिता के साथ हुआ सब बंजर।।
मणिकर्णिका पर लाशों के ढेर थे समान।
ऊंचाई पर दिखने वालो के सीने भी चुभे थे तीखे वाण।
हर शख्स जल रहा था पास पास।
श्मशान में गरीबों को भी मिल गई थी समानता की आस।।
मौत ने लगा दिया सबका सट्टा।
ना गई साथ पूंजी लगा ना स्वाद खट्टा।
लाशें ऐसे सजी है घाट।
जैसे सुसज्जित कर रही हों खाने का स्वाद।।
मौत की आस में, मिल रहे हर वक्त मौत से।
उस मौत के खौफ में ,मौत को कर रहे करीब।
जैसे पवन से मिलती निर्लज्जता से।
होते दहन शरीर।।