"कितने योद्धा , कितने बिस्मिल
आज मुझसे कह रहा है।
युद्ध है जो करवट
ये गवाही दे रहा है।"

ये युद्ध सदैव एक प्रकार से विजित और अविजित साम्राज्य के बीच होता है कई योद्धा घायल हो जाते हैं कई बारूद की ढेर में सो जाता है, कोई घायल हो जाता है, कोई कर देता है।

ये घटना क्या 23 सितंबर 1918 की है ।आज अगर हम उस लड़ाई के मंजर की कल्पना भी करें तो यही प्रतीत होता है कि उस लड़ाई में मौत तो तय थी।

परंतु उस दिन शायद इतिहास में एक शौर्य गाथा लिखी जानी थी। उस दिन दुनिया को राजपूत योद्धाओं का वह साहस देखना था जो इतिहास में उसके बाद कभी भी दोहराया नहीं गया।

400 वर्षों से ऑटोमन साम्राज्य जोकि तुर्क साम्राज्य का एक भाग पर पहले इजराइल का शासन था लेकिन इसराइल परतंत्र है और इसको स्वतंत्र कौन करेगा जोकि तुर्कों के अत्याचार से जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी।

विश्व मे योद्धाओं ने बहुत सी चकित कर देने वाली जंग लड़ी है। ऐसी जंग जिसे देखकर देवता स्वर्ग से पुष्पवर्षा करते है, सभ्यताएं गौरान्वित होती है एवं इतिहासकार जिनका जिक्र स्वर्णिम अक्षरों में करते है। इसी प्रकार की जंगो को लड़ने के लिए माताएं अपने पुत्रों को अपना दूध पिलाती है एवं वीरांगनायें अपने पति को तिलक निकालकर युद्धभूमि के लिए विदा करती है।

ऐसी ही एक जंग मारवाड़ के रणबाँकुरे रावणा राजपूत वीर मेजर दलपत सिंह शेखावत ने लड़ी थी। ये एक चकित कर देने वाली घटना थी दुश्मन सैनिकों के पास बहुत से हथियार बंदूक सब कुछ लेकिन हमारे सैनिकों के पास केवल पारंपरिक हथियार फिर भी हमने विजेता बनकर सबको यह बतलाया कि हम अभी भी ताकतवर है।

"जोधपुर भी कहता है
श्वांश - श्वांश विश्वास में।
रणबांकुरे दलपत विजय
आपनो इतिहास में।"

प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीय ब्रिटिश की सँयुक्त सेना जिसमें ब्रिटेन, मैसूर लांसर्स व मारवाड़ की सेना सम्मिलित थी, को एक बेहद मुश्किल जमीनी युद्ध मे तुर्की सेनाओं से युद्ध लड़ना था। 23 सितम्बर 1918 को उस युद्व का एक बेहद अहम दिन था। ब्रिटिश भारत की इस सेना की कमान मेजर दलपतसिंह शेखावत की पास थी।

मेजर ने जब देखा कि शत्रु पक्ष बेहद मजबूत स्थिति में था एवं तोपों से सुसज्जित था। उनकी तोपें आग उगल रही थी एवं उन तोपचियों का निशाना बड़ा सटीक व तोपो की मारक क्षमता बेहद खतरनाक थी।

"बारूद थे ,तोपें थी और पुराने वो हथियार।
पर हौसलों से चमकी थी , जोधपुर की रण तलवार।"

अंग्रेज अफसर ने अपनी सेना को उस विशाल सेना के सामने युद्ध करने से मना कर दिया पर हमारे मेजर दलपत सिंह ने कहा यदि हम एक बार युद्ध में आ जाए तो हम युद्ध नहीं छोड़ते मैदान में नहीं डरते हम लड़ेंगे और बेफिक्र लड़ेंगे।

ऐसा जुनून देखकर हमारे सारे भारतीय वीरों का जोश और भी बढ़ गया और वो युद्ध के लिए तैयार हो गए।

"कितनी भी सेना के दुश्मन
ना खोवे अपना सम्मान।
हमारे मन में भी है
अपने पुरखों का अरमान।
युद्ध लड़ेंगे, आज लड़ेंगे
निकल पड़े चाहे अपनी जान।
अब तो सेना और बढ़ रही
अपने गंतव्य पर स्थान।"

मेजर ने तमाम घुडसवारों को 2 किलोमीटर दूर कयामत बरसा रही तोपों पर बिजली की गति से एक साथ हमला कर दुश्मन को चकित करते हुए खत्म करने का आदेश दिया।

मेजर के नेतृत्व में 600 घुडसवारों ने अपने हाथों में भाले व तलवार थाम कर शत्रु पर तेज, अचानक व हौलनाक चढ़ाई कर दी।

घुडसवारों के इस दल की तेजी दिल दहलाने वाली थी। उनके हाथों में तलवारें बिजली की मानिंद चमक रही थी। तोपों से शोले निकल रहे थे। वातावरण तोप के गोलों की आवाजों, घोड़ो की पदचापों व हथियारों की खनक से गुंजायमान हो रहा था। घुड़सवार तोपों की तरफ अग्रगामी थे उनके सीने शोलों से टकरा रहे थे। ऐसा विहंगम दृश्य देखकर वक्त रुक गया था।

"उनके साहस और गौरव को
तूफानों से ना वारों से।
तोप के गोले टिक नहीं पाई
चमक उठी तलवारों से।"

मेजर दलपतसिंह जी राजपूत का तनबदन लहलुहान हो रहा था लेकिन शरीर पर लग रहे घाव की फिक्र रणबांकुरों का कहा होती है वे तो कंधे पर सर ना रहने पर भी युद्ध का मैदान नही छोड़ते है। मेजर व उनके वीरवर घुडसवारों ने चंद लम्हो में ही तोपों के सर पर पहुँच गए। उनकी तलवारों ने तोपचियों को खामोश कर दिया। शत्रु वीरता से लड़े लेकिन सर पर कफ़न बांधे दरिया के समान आगे बढ़ते मेजर व उनके घुडसवारों के सामने अधिक देर नही टिक सके।

इस अदभुत, हैरतअंगेज व दिल को दहला देने वाली जंग में मानो काल नृत्य कर रहा था। चारों तरफ बारूद की गंध पसरी थी व इस गन्ध में रक्तरंजित शवों से निकलते रक्त की नदी ने मिलकर रणभूमि को लहलुहान कर दिया था। मेजर व उनके साथियों ने मोर्चा फतह कर लिया था। दुश्मन नेस्तनाबूद हो चुका था। तोपों के मुँह खामोश हो गए थे। मेजर के साथियों ने विजय पताका फहरा दी थी।

मेजर के घुड़सवार शान से मोर्चा फतह कर बेस की तरफ लौट रहे थे। जंग जीत चुके जँगजुओ के चेहरे सूर्य के समान प्रकाशित थे लेकिन उनके ह्र्दयांचल में अपने साथियों के बिछडने की गहरी कसक शूल के समान चुभ रही थी। वे लौट रहे थे लेकिन 600 नही थे।

"दिल में कसक सी होती है,
धड़कन में क्यों एहसास होता है।
जब कोई अपना बिछड़ जाए
फिर भी वो अपने पास होता है।
चले गए जो साथी जग से
अब तो सांसे थाम चले हैं।
दुःख होता है इन शब्दों में
जब वो अपना नाम चले हैं।"

युद्ध की विभीषिका में सारे रणबांकुरे मैदान में उतर चुके थे तब उन्होंने नदी पार करने के लिए मेजर दलपत सिंह ने आदेश दिया पार करते - करते समय मेजर दलपत सिंह को गोली लग गई और वो वहीं पर वीरगति को प्राप्त हो गई।

फिर अचानक सारे रण बांकुरो का आक्रोश और भी बढ़ गया उन्होंने जर्मन और तुर्की सेना तथा ऑटोमन साम्राज्य के सैनिको पर अपना निशाना साधा।जोधपुर लांसर्स और मैसूर लांसर्स ने अपने मेजर दलपत सिंह और 7 अन्य सैनिकों की वीरगति का बदला लेने और हाइफा को तुर्की के कब्जे से छुड़ाने के लिए अभियान शुरू किया और तुर्की के सैनिकों पर अपने भाले और तलवारों से हमला बोल दिया।

"इसी युद्ध में दलपत जी को आज लगी थी गोली
मरते दम तक एक ही नारा रामचंद्र की बोली।
आक्रोश फिर भर आया नायकों की जो टोली
मारकर या मर कर आज खेलेंगे हम खून की होली।"

पुराने हथियारों से लैस उन दो राजपूत रेजीमेंटो का घातक हमला था जिसके खिलाफ आधुनिक हथियारो से लैस 1000 से ज्यादा की सेना थी लेकिन जोधपुर लांसर्स ने इतनी तेज रफ्तार से हमला किया कि दुश्मन को समझने का मौका ही नहीं मिला, किलेबंदी वाले किसी भी शहर पर घुड़सवार दस्ते के कब्जे की इतिहास में ये अकेली घटना है।"

हाइफा युद्ध भारत के वीर अदम्य साहसी सैनिकों द्वारा लड़ा गया वह युद्ध है जिसे आज शायद बहुत ही कम लोग जानते है।

इतिहास के पन्नों में यह कहानी न जाने कितने सालों से धूल खा रही है युद्ध भले ही ब्रिटिश सेना ने लड़ा था मगर इसमें जीत भारतीय राजपूत सैनिकों के शौर्य ने ही दिलाई थी। उन्होंने पूरी दुनिया को दिखा दिया कि आखिर भारत के सैनिक कितने फौलादी होते हैं।

अब आपको इस बात की जानकारी हो ही गई होगी कि दिल्ली के तीन मूर्ति भवन के सामने बीच सड़क पर स्थित तीन घुड़सवारो की मूर्तियां इजरायल के शहर हाइफा को तुर्की के कब्जे से मुक्त कराने वाले भारतीय सेना के तीन घुड़सवार रेजीमेंटो का प्रतीक है। उन्होंने स्वर्णिम इतिहास रच दिया था। उनका नाम विश्व के श्रेष्ठ लड़ाकों में शुमार हो चुका था।

अपने रेल नेटवर्क और बंदरगाह की वजह से हाईफा शहर रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण जगह थी क्योंकि हाइफा शहर जर्मनी और तुर्की के लिए मित्र राष्ट्रों की सेनाओं के लिए युद्ध का सामान और राशन भेजने के लिए एकमात्र समुद्र का रास्ता था।

इजराइल देश आज भी इन सैनिकों के बलिदान के कारण आजाद है और जान सकते हो आप भी आजादी की कीमत क्या होती है, हमारे सामने कई युद्ध आते हैं ,लेकिन यह युद्ध की कुछ खास ही था लेकिन कई लोग इसे भूल जाते हैं इतिहास चाहे बदल जाए या फिर ये बदलना चाहे तब भी कुछ पन्नों में रह जाता है और यह बताता है कि अभी भी मैं जीवित हूं।

"किन पत्रोँ मे लिखू मै
ये वीरोँ का गुणगान|
खत्म हुई सागर की स्याही
भारत के जवान|
ये अमन के बगीचे को
इन वीरोँ ने सीँचा है|
इनके त्याग से पावन धरती
कुरान भागवत गीता है|
जब हम मेले मे जाते है
ये अपना वचन निभाते है|
हम तो चैन से सोते है
ये गोली को खाते है|"

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