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मेरा जीवन जो सादा इतना
जितना सरल हो जाए।
तुम बलखाती इतलाती नदी हो
सागर में समा जाए।
कितना कुछ कहना है तुमसे
अच्छा जो लगा तुमसे मिल के।
पर आकर फिर भी चले गए
बंद हो गए निशा से पुष्प खिल के।
मुझ में रस धारा छंदों की
करुण, तरुण जैसे क्रन्दों की।
जागृत जैसे होने लगा
कहने लगा सब वृंदों की।
जिसमें कोई कहानी न हो
बहते आंसुओं की पानी न हो।
अब साथ-साथ अब क्या जीना?
जिसकी अमिट कहानी न हो।
मेरे जीवन का रुख मोड़ नहीं
मेरे कर्म में किसका जोर नहीं।
जो लेखा-जोखा कुछ करके
मुड़ा हुआ तेरी ओर नहीं।
आज सगा संसार कहां?
जो दरिया के पार कहां?
मैं तुमसे कहने आया था
मुझमें तुम पर अधिकार कहां?
मैं तो नदिया का किनारा हूं
जैसे भटके का सहारा हूं।
जो चमक गया सो चमक गया
वो तो सूर्य सितारा हूं।