नन्हे ,कोमल कंधे दब रहे मज़दूरी के बोझ तले

अंधेरी, गुमनाम गलियों में इनके बचपन का है सूरज ढले

सुबह सवेरे निकल पड़ते ये भूखे , फटेहाल

पापी पेट के खातिर, ये दुनियादारी के रंग में रहे खुदको ढाल

पैरों में छाले , हाथों में गहरे चोटों के निशान

ईट पत्थरों से ये रोज़ जंग लड़ते , भले ये हो जाए कमज़ोर बेजान

एक वक्त की रोटी भी मुश्किल से नसीब होती

अपने बच्चे की हालत देख हर मां फूट फूट कर रोती

कभी सजना था जिन हाथों को कलम की स्याही से

वो आज जल रहे हैं गरम तेल से भरे कड़ाही से

समय से पहले मां का दुलारा इतना बड़ा हो जाता

दुनिया भर की मुश्किलों से ठोकर खाकर भी , चट्टान की तरह फिर खड़ा हो जाता

दिन भर खून पसीना बहाकर भी उफ तक न करता

अपनी मुस्कान बेचकर ,परिवार की खुशियों की गुल्लक को भरता

अक्षर के पंख लगा जिसे उड़ना था ज्ञान के आसमान में

वो ठेलों, ढाबों में बेच रहा टुकड़े अपने सम्मान के

झूठे बर्तन , मेज़ वह साफ करता दिन रात

चाय बेचने के चक्कर में ट्रैफिक से जान बचाकर वह देता हर गाड़ी को मात

कार्यशाला के औजारों संग वह खेलता मौत का खेल

कचरे के ढेर में सोने को तलाशता वह नंगे पैर

चुभते कांटों, पत्थरों को भी वह बहदादुरी से जाता झेल

कभी जिनकी आंखें रंगीन चूड़ियों को देख खिलखिला उठती

आज वही बिना हवा, रोशनी के अंधेरी कोठरियों में उन्हें बनाते हुए आंसुओं से तिलमिला उठती

कोई दिन भर खेतों को अपने पसीने से सींचता

तो कोई अपनी क्षमता से ज्यादा बोझ को अपने कंधे पर रख दूर तक खींचता

जो पटाकों के जादू से आज तक अनजान है

वही इनके कारखानों में दिन भर मेहनत करते भूल कर अपना खान पान है

ए भारत, देख तेरा भविष्य मज़दूरी के अंधेरों में खो रहा है

अब तो मासूमियत की रक्षा के लिए आवाज़ उठा ,तू ऐसे क्यों चुप हो रहा है

देख इन नादान फूलों को जो कीचड़ में खिल रहे हैं

देख तेरे भविष्य के दीपकों को जो मिट्टी में मिल रहे हैं

अब तो बाल मज़दूरी के इन बेड़ियों को तोड़ जरा

तुझसे यह मांग रहे हैं ये अंबर और धरा

समय अब भी शेष है , देशवासियों अपनी आवाज़ उठाओ

सब एक दूसरे का हाथ थामकर , देश के सुनहरे भविष्य को सजाओ

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