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दिल्ली की हलचल से थोड़ी दूर, दरियागंज की पुरानी गलियों में एक हवेली थी—शांत, जर्जर और गुमनाम। उसका नाम इतिहास की किसी किताब में दर्ज नहीं था, न ही किसी पर्यटन मार्गदर्शिका में उसका ज़िक्र मिलता था, पर वह हवेली एक जीवित स्मृति थी। उस हवेली के भीतर एक खिड़की थी, जो समय के साथ न तो टूटी थी, न ही बंद हुई थी। वो खिड़की हर साल, पहली बारिश के साथ अपने आप खुल जाती थी—बिना किसी हवा के झोंके के, बिना किसी के छूने के। मानो कोई अदृश्य प्रेम वहां दस्तक देता हो।

उस खिड़की के पास बैठती थीं प्रियांशी वर्मा। उम्र 68 वर्ष, चेहरे पर झुर्रियों की लकीरें थीं, लेकिन उनकी आँखों में अभी भी इंतज़ार का वही तेज़ था जो किसी नवयुवती के प्रेम-पत्र में होता है। प्रियांशी की दुनिया अब बहुत छोटी थी—एक खिड़की, एक चाय का कप, एक रेडियो जिसमें पुरानी ग़ज़लें बजती थीं, और अनगिनत कविताएं जिनमें उन्होंने किसी "आरव" को सालों से जीवित रखा था।

लोग उन्हें अजीब कहकर बुलाते थे। कुछ कहते—"पगली हो गई है। अब क्या आएगा कोई उसके लिए?" लेकिन उन्हें दुनिया की राय से कोई फर्क नहीं पड़ता था। उनकी दुनिया में अब भी उम्मीद थी, अब भी कोई दस्तक बाकी थी।

प्रेम जो लिफ़ाफ़ों में सांस लेता रहा

प्रियांशी और आरव की कहानी कोई फ़िल्मी ड्रामा नहीं थी। वो दो साहित्य के विद्यार्थी थे, जिन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के कैंपस में एक कविता पाठ में पहली बार एक-दूसरे को देखा था। एक ने मंच से पढ़ा:

“खिड़की खोलो तो उजाला नहीं आता,

कभी-कभी कोई इंतज़ार भी अंदर दाख़िल होता है।”

और दूसरे ने उत्तर में मुस्कुरा कर कहा था—"क्या उजाले का नाम बता सकती हैं आप?"

उसके बाद किताबें, चाय, बारिश, और कविताएं उनके जीवन का हिस्सा बनती गईं। उनका प्रेम कभी शब्दों से बोझिल नहीं हुआ, वो हर मुलाक़ात में चुपचाप गहराता गया। लेकिन जब आरव को एक डॉक्युमेंट्री शूट के लिए कश्मीर जाना पड़ा, तब उन्होंने एक-दूसरे को वादा नहीं किया—बस एक-दूसरे की आँखों में ठहराव छोड़ दिया।

वो चिट्ठी जो समय को चीरकर आई

चार दशक बाद एक बरसात की दोपहर, प्रियांशी के दरवाज़े पर एक दस्तक हुई। सामने खड़ा था एक बूढ़ा डाकिया—जिसकी वर्दी भीग चुकी थी, पर आँखें अब भी पहचानती थीं।

"प्रियांशी वर्मा?" उसकी आवाज़ में काँप थी।

प्रियांशी ने सिर हिलाया।

उसने काँपते हाथों से एक पुराना, पीला पड़ा लिफ़ाफ़ा बढ़ाया। बारिश ने उसकी स्याही को थोड़ा मिटा दिया था, लेकिन नाम अब भी चमक रहा था—आरव।

उन्होंने जैसे ही लिफ़ाफ़ा खोला, उनके भीतर कुछ टूटकर बह गया।

"प्रिय प्रियांशी,

यदि ये पत्र तुम्हारे हाथों में है, तो जानो कि मेरी साँसों ने अब भी तुम्हारा नाम थाम रखा है।

मैं लौट आया हूँ—बाग़-ए-इन्कलाब की उस पुरानी बेंच पर, जहाँ आख़िरी बार तुम्हारे हाथ को थामा था।

हमेशा तुम्हारा, आरव।”

उनके हाथ कांपने लगे। आँखों से आँसू बहने लगे लेकिन उनके होंठों पर मुस्कान थी। बरसों बाद उनके हृदय ने फिर धड़कना शुरू किया था।

बाग़-ए-इन्कलाब की बेंच पर फिर से

अगली सुबह प्रियांशी वही साड़ी पहनकर निकलीं जो उन्होंने आख़िरी बार आरव के साथ पहनी थी। उन्होंने बालों में हल्का सा तेल लगाया, बिंदी लगाई और कानों में वही चांदी की बालियां पहनीं।

बाग़-ए-इन्कलाब अब पहले जैसा नहीं था। बेंच पर वक्त की दरारें थीं, पेड़ थोड़े झुक गए थे, और घास अब धूल से ढकी थी। लेकिन उस बेंच पर एक छाते के नीचे एक बूढ़ा आदमी बैठा था।

प्रियांशी का दिल ज़ोर से धड़का।

"आरव..." उन्होंने धीमे से कहा।

वो उठा, कांपते हुए उनके पास आया। उसका चेहरा झुर्रियों से भरा था, लेकिन आँखें अब भी वही थीं—शांत, गहरी, और स्नेह से भरी हुई।

"तुम अब भी वैसी ही लगती हो," उसने भर्राई हुई आवाज़ में कहा, "बस तुम्हारी ख़ामोशी अब ज़्यादा बोलती है।"

वो कैद, जो शब्दों से परे थी

आरव ने प्रियांशी को एक कोने में ले जाकर पूरी कहानी सुनाई। कैसे कश्मीर की घाटियों में उसे आतंकवाद के संदेह में गिरफ़्तार कर लिया गया। कोई सुनवाई नहीं हुई। उसके पास साबित करने को कुछ नहीं था, सिवाय यादों के और प्रेम की एक पुरानी तस्वीर के।

"मैं हर साल तुम्हें खत लिखता था," उसने कहा। "हर साल, एक चिट्ठी। लेकिन शायद मेरी चिट्ठियाँ मेरी उम्मीद से पहले बूढ़ी हो गईं।"

"मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि तुम लौटोगे," प्रियांशी की आँखें छलक पड़ीं।

"मैं कभी गया ही नहीं था, प्रिय," उसने कहा। "मैं हर बारिश में तुम्हारी खिड़की से झाँकता रहा।"

हवेली की दीवारों में गूंजती मोहब्बत

वो दोनों हवेली लौटे। आरव की निगाहें दीवारों पर टंगी तस्वीरों पर ठहर गईं—कविताएं, चित्र, पुराने लम्हे।

"ये सब...?" उसने पूछा।

"तुम्हारी याद में। मैंने तुम्हारे बिना भी तुम्हारे साथ जीवन जिया," उन्होंने कहा।

रेडियो पर गुलाम अली की ग़ज़ल चल रही थी—

"हम को किस के ग़म ने मारा, ये कहानी फिर सही…"

आरव ने पूछा, "शादी क्यों नहीं की?"

"किया था," उन्होंने धीमे से कहा। "तुमसे। बस, तुम्हारे बिना।"

एक आख़िरी ख़त

उस रात बिजली गुल थी। मोमबत्ती की लौ में उनकी परछाइयाँ दीवार पर थिरक रही थीं। आरव के हाथ में एक कागज़ था।

"मेरे लिए एक आख़िरी ख़त लिख दो," प्रियांशी ने कहा। "पर इस बार उसे भेजना नहीं। बस यहीं मेज़ पर छोड़ देना, ताकि जब मैं तन्हा रहूँ, उसे पढ़ सकूँ।"

आरव ने कलम उठाई, एक गहरी साँस ली, और लिखा:

“अगर तुम ये पढ़ रही हो, तो जानो… मैं कभी गया ही नहीं।

मैं तुम्हारी चाय की गर्मी में था, तुम्हारी कविताओं की साँसों में,

तुम्हारी हर रात की ख़ामोशी में।

अगली बारिश में जब खिड़की खुले, आँखें बंद करना—मैं वहीं खड़ा मिलूँगा।

— हमेशा तुम्हारा, आरव”

अंतिम विदा

अगली सुबह खिड़की खुली थी, जैसे हर बार।

लेकिन कुर्सी खाली थी।

छाता दरवाज़े पर था, चप्पलें सजी थीं। और मेज़ पर लिफ़ाफ़ा रखा था।

प्रियांशी ने उसे पढ़ा और मुस्कराईं। उस दिन वो दिन भर उसी कुर्सी पर बैठीं रहीं। शाम को लोगों ने देखा—वो वहीं थीं, आँखें बंद, हाथों में वो ख़त, और चेहरे पर एक गहरी शांति।

उनकी आत्मा अब भटक नहीं रही थी।

ख़ामोश खिड़की की आख़िरी दस्तक...

कहते हैं उस दिन के बाद हवेली की खिड़की कभी नहीं खुली।

क्योंकि अब उसका इंतज़ार ख़त्म हो चुका था।

ग़ज़लें अब भी बजती थीं, लेकिन वो अब शोक में नहीं, स्मृति में थीं।

और जब भी बारिश होती है…

लोग उस हवेली की ओर देखते हैं…

जहाँ कभी एक खिड़की अपने आप खुलती थी—क्योंकि वहाँ दो दिल अब भी एक-दूसरे की प्रतीक्षा में धड़कते थे…

कहीं, किसी और ज़मीन पर।

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