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छोटी उम्र का बड़ा तजुर्बा कहता है,

बिना वजह किसी का देखना भी खटकता है।।

अपनों के कर्मों की सजा जब मिलती है,

तो पहचान भुला एक आम इंसान बन जीने को मन करता है।।


अपने भी भेदभाव की पराकाष्ठा पर उतराते हैं,

ऐसे दुर्लभ समय में भी एकांत छोड़ जाते हैं,

अन्नुतर प्रश्न कर सब के सामने अपमान की सूली चढ़ाते हैं,

और फिर महान बनने का आडम्बर रचाते हैं।।


छोटी उम्र का बड़ा तजुर्बा कहता है ,बिना वजह किसी का देखना भी खटकता है।।


भूले नहीं बोलती वो वाणी , अपनों ने कैसे उपहास बनाया था,

कैसे एक व्यथित व्यक्ति के प्रकाश पुंज को आकाशदीप बना उड़ाया था,

कैसे सालों तक तमिस्रा सा छाया था,

उस तमिस्रा में अपनी ही खुशी का मकबरा पाया था ।।


छोटी उम्र का बड़ा तजुर्बा कहता है ,बिना वजह किसी का देखना भी खटकता है ।।

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