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मन में भरी व्याकुलता।
काट रहा था कोई निर्दयी।
जर्रे जर्रे से आह निकली मेरी।
जब मार रहा था मुझे निर्दयी।।
जब उस जालिम ने रौंदा मानो मौत को मेरी बुलाया।
किसी भयानक रूप वाले को भेज मुझे बुलवाया।
नींद से डर कर मैं जाग उठा।
मन भाव भरे , हृदय चीर उठा।।
डर बैठा मन में एक ओर जमाया था।
धार नोक पर मुझे उसने बैठाया था।
एक पल की भी देर ना लगाई।
उस निर्दयी को मुझ पर दया भी न आई।।
मन ही मन मैं भयभीत हुआ।
आशंकित हो बस तीक्ष्ण बीच हुआ।
डर से था सहमा जैसे था हर्जाने को।
पर वहां कोई ना पहुंचा मुझे बचाने को।।
शक्ति से सहनशक्ति ऊर्जा सब हुई खत्म।
दृढ़ता धैर्य से जीवन शक्ति भी हुई भस्म।
खाने के खातिर मुझ बेजुवान को मार दिया।
और बेचने के खातिर भेज बाजार दिया।।
जिंदा जान से मांस तक का सफर माप लिया।
सांसों से पैसे तक का असर नाप दिया।
लोग भाव लगा रहे थे।
शरीर को पकाने के लिए मसाले जमा रहे थे।।
घर में भी थी रौनक आज मांस पकाने की।
दावत भी थी आज घर में खाने की।
नहीं थी सिकंत किसी को मार गिराने की।
खुशी ही दिखाई दी बेजुवां को खाने की।।
लग रहा था इस को खा ताकत आयेगी।
मांस गोश्त से बुद्धि तेज हो जायेगी।
एक डर सहमे से जानवर को जब मार कर खाते हो।
तो जरा सोचो कैसे मन तुम्हारा हरसाएगा।
कैसे तेज तुम्हारे अंदर आयेगा।।