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न वसन ओड़े कामिनी, न भरा है उदर।
निवाला भी लगता आंकलन, मिलते जैसे धरती में कंकर।
भूख गिड़गिड़ाती ऐसी, जैसे प्रतिनाद करते स्वर।
अन्यमनस्क है, जैसे शांत हो गया हो मुखर।।

सहमी हुई है झोपड़ी, बारिश के खौफ से।
और महलों की आरजू है कि बरसात तेज हो।
समझे कौन ये प्राणांतक अभाव ए दरिद्रता।
खौफ ए हिज़्र में दिखती न वो पवित्रता।।

अकिंचन ऐसी की हिलोर, मन की उमंग।
महलों में न आती समझ, खौफ के संगम।
मौज मनाती जिंदगी की हसरतें।
उछंग में आती न नजर गरीबी की बंदिशे।।

वमनोत्पादक लगती निर्धनता।
धनाढ्यता को दिखे सिर्फ क्षमता।
दिलों में आए न नजर कोई उदारता।
दोजख(जहन्नुम) सी लगती निर्दय उनकी प्रगाढ़ता।।

धनहीन मांगे रोटी, मिलता न एक निवाला।
आस से कैसे करे परहेज, न किसी ने संभाला।
अवर्जित हो जैसे आस, बैठता न कोई पास।
कैसी ये दुर्भाग्यशाली कंगाली है पाई।
फिर भी हर पल उस एक निवाले की आस है लगाई।।

बच्चा बैठा भूखा, दर दर भटके द्वार।
लगती बेबसी, अश्रु भी हो गए लोचन से पार।
काश आ जाए किसी को थोड़ा तो रहम।
काश ये भूख आज रात भर के लिए जाए सहम।।

कोई तो मधुसूदन नजर आए।
सुदामा सा समझ प्यार से दो निवाले खिलाए।
हाथ पकड़ चलने की उम्मीद नहीं।
बस वो दो वक्त की रोटी से मेरे परिवार का पेट भर जाए।।

काश ये स्वप्न मेरा हकीकत हो जाए।
अंतिम सांसे ले रहा है शरीर मेरा।
बस ये मुराद मेरी पूरी हो जाए।
मैं तो भूखा ही मर रहा हूँ।
हे प्रभु अब ये गरीबी किसी के हिस्से न आए।।

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