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जीत गए वो इज्जत से, या हार गई इज्जत।
महफूज है तो नारी की इज्जत,गई तो इज्ज़त नारी की।
मान लिए आम नहीं नारी की इज्जत।
पर हर हाल चली गई, सामान नहीं कोई नारी की इज्जत।।
एक बात समझ न आई, गई न कभी पुरुष की इज्जत।
हराम नहीं या नीलाम नहीं।
रहे हर पुरुष अब आम नहीं।
रहे किसी पुरुष में अब राम नहीं।।
लुटने पर भी न जाए, जाए न लूटने पर।
ऐसी क्या बात है जो समझ भी न पाए।
खुद भिन्न है जीव शरीर से।
या किसी अन्य जीव की आत्मा है समाई।
पुरुष की कभी न गई इज्जत ,ये बात समझ न आई।।
औरत को लगा हाथ कैसे आई इज्ज़त पर बात।
उसको तो सिर्फ हाथ लगाया है।
शर्म तो उसको आए जिसने हाथ अपना उठाया है।
कैसी गई फिर नारी की इज्जत ये भेद मन में समाया है।
पुरुष की इज्जत कैसे न गई ये न किसी ने बताया है।।
खींच दिया दुप्पटा तन से।
हास्य फिर भी कन्या का बनाया है।
वो तो जा रही थी रास्ते पर।
कैसे उसकी इज्जत पर उस दुप्पटे ने सवाल उठाया है।।
कन्या न है कसूरवार वो।
फिर भी कसूरवार उसको ही बताया है।
भेद है लिंग का, और पुरुषों को सर्वोच्च बनाया है।
क्या समाज का सारा ठेका नारी ने सिर पर उठाया है।।
पुरुष प्रधान समाज ने इस तरह नारी को सताया है।
हर बार नारी की ही आवाज को दबाया है।
हुआ नारी के साथ कुछ गलत तो भी नारी को ही सुनाया है।
क्यों इस समाज ने कभी पुरुष में खेद न पाया है।।
फिर इज्जत की बात नारी से हुई तो नारी ने बताया है।
पुरुष की होगी तब जाएगी।
जिसने हर हाल में नारी को खिन्न जताया है।
उस पुरुष की कोई इज्ज़त है ही नहीं।
तभी तो उसने इल्जाम नारी पर लगाया है।।

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