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कितना भ्रम में फंसा इंसान।
सम्पन्न था रोटी कपड़ा मकान।
साथ चला ना फिर भी अभिमान।
अंतिम मंजिल सबकी थी श्मशान।।
ना धनवान का धन चला साथ।
ना निर्धन की माया।
ना हुई जिज्ञासाओं की प्रीत।
पलट दी मृत्यु ने सबकी काया।।
अहम में था (ध्वनि) स्वान।
मौत की घड़ी से थे अंजान।
अंतिम यात्रा में ही मिला बस मान।
श्मशान पर सब साथ जल रहे थे इंसान।।
ना कोई प्रलोभन आया नजर।
ना पैसे की बनी थी सैया।
जो बोलते भी ना थे ठीक से।
मौत पर उनका भी मीठा दिखा रवैया।।
निर्धन की चादर भी उतनी ही थी बडी।
जितनी धनवान की सीढ़ी।
श्मशानकर्म तक ही चलती थी सबकी।
छोड़ गए अगली पीढ़ी।।
जलाने वालो में सबसे पहले अपनों को ही किया खड़ा।
जिनको तू माने था खुदसे भी बड़ा।
जिनके लिए काट कलेजा रखने को था तू राजी।
उनके हाथ ही थी सारी बाजी।
पर देख,,,मृत्यु की सच्चाई।
उन्होंने ही तेरी चिता में आग लगाई।।
आग की चादर ओढ़।
आधा जलता शरीर छोड़।
सोचा अन्त्येष्टि-क्रिया हुई साकार।
सब कर गए दाह-संस्कार।।