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थी कोई काया।
था कोई अदृश्य साया।
बिछा था कोई ऐसा जाल।
ना बचा पाई मैं अपना लाल।।
ढूंढने निकली मैं एक स्थान।
सोचा था यहां बचा पाऊंगी मैं अपने बच्चों की जान।
थी इस बात से अंजान।
साया था कोई हैवान।।
थी मैं मूक।
व्याकुल थी मेरे पेट की भूख।
भूखा भी तो था नन्हा अण्डज।
बचा ना पाई मैं अपना नीडज।।
अंडकोष से थे बाहर उसके प्राण।
लेकिन ना बन पाया था ठीक से जान।
सोचा भी न था परिंदा।
ऐसे उस खग को रौंदा।।
ठीक से आई भी थी इस पर खाल।
अभी बने भी ना थे ठीक से बाल।
उड़ने को भी ना मिले थे उसे अभी गगनचर।
उससे पहले ही चल बसा वो नभचर।।
मेरे लाल के उड़ गए प्राण पखेरू।
जब मेरे घरौंदे को उजाड़ने का हुआ सिलसिला शुरू।
क्यों इतनी निर्दयी हुआ इंसान।
दिखाई भी ना देता क्या,घोंसले में बैठी है एक नन्ही जान ।।
क्यों मिला हमें सुरक्षित स्थान नहीं।
ममता दी दिल में, पर मिला प्यार नहीं।
काश थोड़ी सी दया इंसान भी विहग पर दिखाए।
हमारे छोटे से घरौंदे को तोड़, ऐसे ना फेकें ना हटाए।।

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