पापा की वो सोनपरी जब दुनिया में आई|
माँ पापा ने राजकुमारी कह उसे दुनिया से मिलाई|
राजदुलारी सी वो भाई बहनों साथ खिलखिलाई|
बडी हुई राजकुमारी अब बारी उसके विवाह की भी आई|
घर आँगन छोड़ नए घर उको जाना था|
माँ बाबुल के अलावा अब उसका एक और घराना था|
उसको जिम्मेदारियाँ भी निभानी थी|
उस नए घर में खुशियां भी अब उसको ही लानी थी|
माँ बाबुल ने प्यार से समझाया था|
बेटा वो तेरा ही घर है, सब तेरे अपने है ऐसा बताया था|
हमारे साथ वो भी तेरे माता पिता है|
सब एक समान समझना, कभी ना आने देना द्वेष|
इस बात का ख्याल रखना विशेष||
पर ये क्या होनी थी, शायद ये अनहोनी थी ...
जहाँ में पली बढ़ी आज वो घर मेरा पराया था|
मेरा घर बात भी करना जुल्म सा बताया था|
कहते थे घर तोड़ रहे वो जिन्होंने मेरा घर बसाया था||
क्यूँ बेटी के मायके को इस तरह दिखाया था|
वह ससुराल में सबको एक समान समझ कर गयी थी|
प्यार बांटा सबको, ना वो पाया था
जो माँ बाबुल ने समझाया था||
सोच रही थी वो, क्यूँ ऐसा होता है|
घर की राजदुलाई को दूसरे घर जाना होता है|
वह सब छोड़ आई यह क्या कम था, जो तुमने ऐसे आरोप लगाए है|
मुझसे पूछो ये खंजर मेरे दिल में कैसे समाये है||
पति से पूछा उसने.
क्या तुम्हारा कभी तुम मेरे खातिर माँ पापा को छोड़ सकते?
क्या उनसे रिश्ता तोड़ सकते हो?
ना ज़वाब है अब तुम्हारे पास..
कहा गए अब तुम्हारे वो लफ़्ज़ खास!
मैं तुम्हारे लिये अपना घर छोड़ कर आई|
पर तुम ये कैसे भूल गए मैं हूँ आज भी मेरी माँ की ही परछाई |
कैसे रह रह लूँ मैं उनके बिन|
जिनमें है मेरी आत्मा समाई ||
माँ बाप की बेटी होने का फर्ज निभा रही हूँ|
मत समझना मैं इसे कर्ज बता रही हूँ||

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