बहतर होता कि तुम दुनिया को पहचान लेते।
बदलते वक्त की बरकत, समय से जान लेते।
कही दिल की खुद, कम से कम मान लेते।
दुनिया को न सही, तो खुद को पहचान लेते।।
मगर समझाए कौन तुमको, कही क्या मान लेते।
हुए मगरूर हो ऐसे, भौहें अपनी हो तान लेते।
वक्त रहते तुम्ही तुमको या जमाने को जान लेते।
शख्सियत खास ही नहीं, फरिस्ता सब मान लेते।।
तुम्हारी वाहवाही को, बड़े बेसब्र हम होते।
जमाने की दुआओं से, खुदा से खब्र हम होते।
अफसोस तुम खुद ही, खब्र से बेखबर होते।
परिंदों से भरे परदेश में, बस तुम रहे सोते।।
तुम्हारी जिक्र भर से, 'स्वयं' एक रोज शरमाया।
तुम्हारी खोज में भी, करा सब वक़्त है जाया।
तुम्हारी फिक्र भी छोड़ी, अरुचि से पूर्ण है साया।
तुम्हारी जुस्तजू पर तो, 'स्वयं' खुद आज भरमाया।।