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एक मुद्दत हो गई है, उस चांद को गौर से देखा नहीं..
बादलों में दिखने वाले चेहरे भी, खो गए हैं अब कहीं...
वो बचपन का जमाना अब फसाना-सा लगता है....
जब हर मौसम सुहाना-सा लगता था....
अपनों के साथ हर बेगाना भी अपना-सा लगता था...
चाहत होती है दिल की,
कि काश जिंदगी की किताब से उन पन्नों को सहज लेती,
जिनमें बचपन की यादें सिमटी है....
वो भी क्या वक्त था,
जब तितलियों को पकड़ना सबसे बड़ी चाहत थी,
और मिट्टी की गन्ध सबसे अच्छी खुशबू.....
दूध पीने से बचना सबसे बड़ी तमन्ना हुआ करती थी,
और स्कूल में टीचर से तारीफ सुनना सबसे बड़ी ख्वाहिश...
ना मंजिल की फिक्र होती थी,
ना ही होता था दिल में कोई नफरत, फरेब और बैर...
बस हर वक्त जीते थे करके जिंदगी को अपनी मर्जियों में कैद..
कुछ भी कर जाने का हर बक्त जुनून होता था...
थक-हारकर भी माँ के आँचल में सुकून होता था...
फिर जिंदगी ने उम्र का ऐसा लुटेरा भेजा,
जो हर रोज बचपन की खुशियों का खजाना लूट कर लिए जा रहा है..
लोग पूछते थे बचपन में,
बड़े होकर क्या बनना है ?
बड़े होकर वापस बच्चे बन सकते हैं क्या ??
बस ये सवाल मुझे परेशान किया जा रहा है ।।