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यूँ नजर नहीं आते हैं शिकन
इशित्व के छाँव में राहगीर,
वो एक मित्र को पुकारते हैँ
जिनकी आँखों में दर्द होता है!
आयुष्मान वो संवाद
संग आयुष्मती मौनी
एक हि बिंदु पर स्तब्ध नजर
वहाँ रेल सी गुजरती अपूर्ण सफर
"अब... आगे?" दो शब्दों में नव उद्घोष
फिर स्तन में मृत संजीविनी का पोष!
इससे सुंदर न कोई अभिनन्दन,
इससे विनीत न कोई निवेदन,
इससे प्रबल न कोई आदेश,
इससे तीव्र न कोई संदेश,
पग उठते हैँ मिलने वो चरण चिह्न
नजर न हटे मित्र से, - अविच्छिन!
नितांत को देकर अपना विदा पत्र,
चले पारीहे मित्र- भाग लेने गुलाबों का सत्र!

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