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वो नीलांबर मन चलन विचरण डगरों का जहाँ
न बंटा हो रंग-रूप में, ऊँचा और निचा है कहाँ?

केसर बिखेर प्रकट हो, जिसकी आभा में ऊर्जा बहुत
चेतना पे संयम हो, क्या दूँ उसकी गरिमा का सबूत?

लघिमा सिद्ध जीव का वो अनंत अखंड साम्राज्य है
हाँ, वो परिंदों की स्वतंत्रता का पर्याय परिभाष्य है!

कभी पुष्प समान मेघ के, कभी मेघपुष्प के जनक
कभी वल्कल प्रशांत है, कभी इंद्रधनुष के सृजक!

कह जाये जो रख अपने माँ के कथन पे इत्मीनान
कह गाये वो नन्ही सी जान के वो है उसका मैदान

है जिसका भूमि को आलिंगन, वे सदा हमें सहला रहे
हम भी पिता को प्रेमालिंगन देने, बाहें सदा से फैला रहे

'धूप में मार्गदर्शन करते करते, अब रंग इनके जलगये हैँ
हम भी अब विचरते विचरते, घर को अपने लौट रहे हैं'

कर निवेदन चंद्रतारा को, के रखना तुम इनका ध्यान
परिंदे भी सोगये जब, सोगया उनका वो आसमान!

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