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संस्कारो का पाठ मां ने गर्भ में ही पढ़ाया था
सहनशीलता की बात मां ने पैदा होते ही बताई थी
सिखाया था मां ने लड़की है धीरे बोल,
नजरे नीची और रात में घर के बाहर न घूम
लडको से बोला न कर, सखियों के संग ज्यादा घूमा न कर
यही सारी बातें सुन धीरे - धीरे मैं बडी हुई
स्कूल की पढ़ाई पूरी करके कालेज के लिए आगे बढ़ी 
मैं चुपचाप पढ़ना चाहती थी,आगे बढ़ना चाहती थी
मां पापा को अपने पैसे का एक तोहफा देना चाहती थी
एक साल तो जैसे तैसे मैने कर लिया था पार
दूजे साल पता नही था हो जाऊंगी हवस के पुजारियों का शिकार
उस दिन मैं अकेले कालेज से घर की निकली थी
आधे रस्ते पहुंची न थी की कुछ लडको ने मुझको घर लिया
पूछने के बहाने रस्ता वही पे मुझको रोक लिया
एक ने पकड़ा हाथ मेरा एक ने जकड़ा पैर मेरा
धीरे धीरे ऐसे करके सबने हवस की प्यास बुझाई अपनी 
आंखो से आंसू गिर रहे थे मेरे जब मेरे साथ ये दुष्कर्म हुआ
सोच रही थी क्या गलती थी मेरी जो मेरे साथ ये काण्ड हुआ
मैने तो मानी एक एक बात थी मां की फिर क्यों मुझे ऐसा श्राप मिला...!!
हौंसला नब्ज के साथ मेरा टूटता गया...!!
ऐसे ही हवस के शिकारियों का शिकार होके मैं पंचतत्व में मिलती रही..!!
उस समय कुछ सवाल थे मन में जो मैं सबसे पूछना चाहती थी...!!
क्या लड़की होना पाप है या लड़की का जन्म ही श्राप है..?
क्या गलती होती है हमारी जो हवस के शिकार होते हैं हम..?
अगर बचपन में ही मां ने सिखाया होता..!!
गलत नही तो झुकना मत,किसी से डर के दबना मत
ऊंची सोच बुलंद आवाज रखना,
कढ़ाई बुनाई नही judo karrate
 सीख खुदके लिए दुनिया से लड़ना....!!
तो शायद आज मैं जिंदा होती....!!
मां काश तूने ये सब सिखाया होता...!!
मुझे पल्लू में न दबाया होता...!!
आज तेरे तौर तरीको ने सर्वदा के लिए आवाज बंद कर दी मेरी...!!
मां काश तूने मुझे रानी बेटी नही...!!
रानी लक्ष्मी बाई बनाया होता...!!

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