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मोटे नैन नक्श और दोहरे बदन की चालीस वर्षीय सज्जन बाई सदैव साड़ी के पल्लू से अपना सिर ढक कर चलती थी l महाराष्ट्र में किसी भी स्त्री को आदर देना हो तो उसे बाई कह कर बुलाते हैं किंतु मध्य प्रदेश में घर में झाड़ू पोछा और बर्तन धोने वाली को बाई कहते हैं l भोपाल के एक संस्थान में उस समय मैं प्रशसनिक अधिकारी था और सज्जन बाई हमारे घर में काम करने आती थी l

जिस संस्थान में मैं कार्यरत था उसके मुख्य परिसर में अधिकारियों के रहने के लिए एक दूसरे से जुड़े हुए सरकारी मकान बने हुए थे और सज्जन बाई वहां चार घरों में काम करती थी l हर सुबह वह अपने घर से पांच किलोमीटर दूर एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित हमारे संस्थान पैदल चलकर आती थी और फिर एक-एक कर के चारों घरों का काम निपटाती थी l झाड़ू, पोछा और बर्तन साफ करते-करते उसे शाम हो जाती थी l कभी-कभार दिन समाप्त होने पर दफ्तर से घर लौटते हुए मुझे वह पहाड़ी से धीरे-धीरे उतरती दिखाई पड़ जाती थी l

क्योंकि मेरे दफ्तर का समय सुबह 9:30 बजे का था इसलिए उस समय सज्जन बाई से मेरा आमना सामना कम ही हो पाता था l दोपहर के भोजन के समय में जब घर आता तो वह अक्सर अपना काम निपटाकर गर्मियों के दिनों में बरामदे में फर्श पर और सर्दियों में बाहर आंगन की धूप में लेट कर मुंह ढकें हुए ऊँघती हुई दिखाई पड़ जाती थी l अपने साथ लाये डब्बे के भोजन को वह अपने पति के साथ बैठकर खाती थी l उसका पति संस्थान में ही माली का काम करता था l

शनिवार , रविवार और अन्य सरकारी छुट्टियों के दिनों में मैं अधिकतर घर पर ही होता था और मेरा समय समाचार पत्र या पुस्तक पढ़ने में व्यतीत होता था l अवकाश के दिनों में सज्जन बाई हमारे बड़े आवास में जब झाड़ू पोछा लगाती तो मेरी पत्नी मुझे कभी इस कमरे से उस कमरे में बैठने को कहती जिससे मेरे कारण उसके काम में कोई अवरोध न हो और घर के हर कोने की सफाई ठीक से हो सके l

एक दिन मेरी पत्नी ने मुझे बड़े गर्व के साथ बताया कि सज्जन बाई कह रही थी कि उसने कभी साहब को घर में बोलते नहीं सुना l मेरे मन में यह विचार आया कि यह तो हर घर की कहानी है और शायद परिवार की आंतरिक शांति के लिए पतियों में यह गुण होना अति आवश्यक है l किंतु अपने शोध किये हुए विचार को मैंने पत्नी के आगे व्यक्त न करते हुए घर की शांति का माहौल बनाए रखा और अपने शांतिदूत वाले योगदान पर स्वयं ही अपनी पीठ थपथपा ली l

हालांकि मैंने सज्जन बाई से कभी बात नहीं की थी पर फिर भी मैंने गौर किया था कि वह घर में अपना काम करते समय हमेशा कोई लोक गीत गुनगुनाती रहती थी l रसोई में मंजते हुए बर्तनों की खड़खड़ाहट और नल से बहता पानी उसके गीत को संगीत देते रहते थे l वह इतनी तल्लीनता से गाती थी जैसे उसे संसार में कोई दुख या फिक्र ना हो l अपने काम के प्रति उसका समर्पण मुझे बहुत भाता था l उसके अल्हड़ गीत का अर्थ तो मुझे समझ नहीं आता था पर उसके गाने की मस्ती और शैली मुझे पसंद थी और जाने अनजाने मेरा मन भी उसे सुनकर आल्हादित रहता था l मैं अनुभव से सीख रहा था कि प्रसन्नता, दुख, संदेह, भरोसा इत्यादि भावनाएं अपने आसपास अपने जैसा ही वातावरण बना लेती हैं l आप यदि आप प्रसन्न हैं तो आसपास प्रसन्नता ही फैलाएंगे और यदि दुखी हैं तो औरों को भी दुखी ही करेंगे l वर्षों पहले सुनी हुई पंक्तियां मुझे यकायक याद आ जाती और उनका अर्थ मुझे गहराई से समझ आने लगा था...  

"ना मिलकर उदास लोगों से, हुस्न तेरा बिखर न जाए कहीं I"

सज्जन बाई और मेरे बीच साल में केवल एक बार ही आमना-सामना होता था और मजे की बात कि उसकी पहल भी वह स्वयं ही करती थी l हर होली के उत्सव पर सज्जन बाई मेरी पत्नी से मुझ पर रंग लगाने की अनुमति लेती थी l मुझे विश्वास है कि जब पहली बार उसने यह आग्रह किया तो मेरी पत्नी को अवश्य अजीब लगा होगा l किंतु उसकी बात मान ली गई और मुझे इस बाबत पहले से ही सूचित कर दिया गया था l

होली की छुट्टी थी किंतु उस दिन भी सज्जन बाई और दिनों की तरह पाँच किलोमीटर पैदल चलकर हमारे घर आई l घर में उसके आने की सार्वजनिक उद्घोषणा की गयी, "सज्जन बाई आ गयी है I"

उसके हाथ में सूखा लाल रंग था l पर उसका पल्लू जो सामान्यतः सिर पर होता था उस दिन लंबे घूंघट की तरह उसके चेहरे को पूरी तरह ढका हुआ था l होली के हुड़दंग में गंभीर और उद्वेग रहित लोग भी अक्सर कुछ उच्श्रृंखल हो जाते हैं किंतु सज्जन बाई और दोनों के विपरीत उस दिन बिल्कुल शांत थी l आंखें नीचे किए हुए और सकुचाया सा मैं उसके सामने आकर खड़ा हो गया l मेरी पत्नी कौतुहूल से सज्जन बाई को देख रही थी I सज्जन बाई ने नीचे झुक कर मेरे दोनों पैरों पर अपने हाथों से रंग लगाया और मूक रहते हुए अपने दोनों हाथ मेरे सामने जोड़ दिए l मेरे मुख से भी कुछ अस्पष्ट शब्द निकले, "खुश रहो " I इस पूरे प्रकरण में आधे मिनट से अधिक का समय ना लगा होगा I मेरी पत्नी ने इस अवसर पर संभवतः उसे कोई उपहार दिया होगा जिसकी मुझे कोई जानकारी नहीं थी I

मेरे कार्यकाल में हर वर्ष यही रस्म निभाई जाती रही l अंतर केवल इतना रहा की इस वार्षिक रस्म को लेकर मेरी पत्नी की आरंभिक जिज्ञासा या असहजता कम हो गई थी l

फिर एक दिन मुझसे एक चूक हो गई l हमारे पड़ोसी और उनकी पत्नी हमारे घर पर चाय पीने आए हुए थे l बातों के सिलसिले में दोनों स्त्रियां सज्जन बाई के काम को लेकर शिकायतें करने लगी जिसका सार इतना ही था कि वह दोनों उसके कम से अधिक संतुष्ट नहीं थी l

ना जाने मुझे क्या सूझी कि उन दोनों की बातचीत में दखल देते हुए मैं बोल पड़ा, "आप लोग जो चाहे कहें पर मुझे तो सज्जन बाई पसंद है l देखिए , उसका जीवन कितना कठिन है l हर दिन वह पाँच किलोमीटर पैदल चलकर आती है और फिर हमारे घरों में दिन भर काम करके वापस पाँच किलोमीटर पैदल जाती है l इतनी मेहनत के बाद भी वह अपना काम कितना प्रसन्न हो कर और गुनगुनाते हुए करती रहती है I"

मेरे इस कथन के तुरंत बाद हम लोगों के बीच सन्नाटा छा गया l मेरे पड़ोसी मित्र मेरी तरफ देखकर मंद मंद मुस्कुरा रहे थे कि मैंने बेकार में ही मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाल दिया l अपनी पत्नी के सामने किसी और स्त्री की तारीफ करना और वह भी एक काम करने वाली नौकरानी की जिस से कोई ग्रहणी कभी खुश नहीं रह सकती, एक अक्षम्य अपराध था l पर तीर मेरे हाथ से निकल चुका था l

कुछ सेकेंड की कानफाडू चुप्पी के बाद मेरी पत्नी ने नाराजगी से मेरी तरफ देखते हुए उलाहना दिया, "आपको सज्जन बाई के बारे में क्या मालूम ?आपको तो उससे काम नहीं करवाना पड़ता है l आपको नहीं मालूम कि वह कितनी जिद्दी और अड़ियल है l" अब मुझे सज्जन बाई की पैरवी पर रोक लगानी पड़ी और चुप रहने में ही मुझे अपनी भलाई लगी l

इस घटना के बाद वर्ष बीतते गए और मैं नौकरी के सिलसिले में भोपाल से त्रिवेंद्रम आ गया l अब तक मेरी दोनों बेटियां बड़ी हो गई थी और अपनी पढ़ाई पूरी कर के मोटी आय वाली बड़ी बड़ी नौकरियां ढूंढने लगी हुई थी l एक दिन मैंने उन्हें बड़े दार्शनिक भाव से समझाते हुए कहा, "यह आवश्यक नहीं कि आप जीवन में कितना पैसा कमाते हैं l आवश्यक यह है कि क्या आप अपना काम करते हुए आनंदित और प्रसन्नचित्त रहते हैं l"

अपने विचारों के बहाव में मैं बोलता चला गया, "तुम लोगों को सज्जन बाई याद है? यद्यपि उसे उसे समय बहुत थोड़ी ही तनख्वाह मिलती थी किंतु फिर भी वह अपना काम खुश होकर करती थी l जीवन की सार्थकता के लिए यही मूल मंत्र है I"

मुझे नहीं मालूम कि मेरे प्रस्ताव का मेरी बेटियों पर क्या असर पड़ा l किंतु मुझे यह एहसास जरूर हुआ कि इतने वर्ष बीतने पर सज्जन बाई द्वारा लगाए गए रंग मेरे पैरों से तो कब के मिट चुके थे पर उन पलों की मधुर स्मृति मेरे मानस पटल पर अभी भी अंकित थी और मेरे मन को हर्षित करती रहती थी l एक बार फिर मेरे अंतर्मन से आवाज़ आयी, "सज्जन बाई, तुम जहां भी हो, खुश रहो I" 

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