कभी कभी बेवजह लिखने का दिल करता है,
क्या लिखूँ, यह समझ में नहीं आता ?
लिखने पर
कई वजहें सामने आ खड़ी होती जाती है.
और
हमारा लिखना हृदय से निकलकर
दिमाग में समा जाता है
और दिमाग का लिखा
वैसा ही होता है जैसा अन्यों का.
क्योंकि-
हृदय का लिखा
चलन से बाहर हो चुका है.
अकसर हम-
देश, समाज, अमीरी, गरीबी, भूख, मौत, व्यापार, राजनीति
और प्रकृति, प्यार, सेक्स, के पचड़े में उलझ कर रह जाते हैं.
और बेवजह लिखने की जिद,
अधूरी रह जाती है.
और मैं कुछ नहीं लिख पाता हूँ.
आजकल
लिखना उतना मायने नहीं रखता,
जितना बोलना.
जो जितना अच्छा बोल लेता है
उतना ही लोग उसे जानते पहचानते है.
वह क्या बोला यह मायने नहीं रखता
सिर्फ क्या बोलना चाहिए
जिससे कि वह लोगों की निगाह में चढ़ सके
यह वह जानता होना चाहिए.
ऐसा नहीं है कि
लिखने वाले पिछड़ गए है
इस समाज में-
इतने लिखखाड़ पड़े है कि
इतना लिखते है कि
उन्हे खुद होश नहीं रहता है कि,
वह क्या क्या लिख चुके है,
यद्यपि-
उनके लिखे को कोई कौन पढ़ता है ?
ऐसे, कभी पढ़ते नहीं,
न गैर का न अपना.
क्योंकि-
आजकल पढ़ने का रिवाज ही नहीं रहा.
इसलिए अपना लिखा वे खुद नहीं पढ़ते!
कई जानबूझकर, सोच समझ कर लिखते चले जाते है,
कोई अनजाने में लिखता है.
क्योंकि इनके लिए लिखना
एक जरूरी प्रक्रिया है,
जैसे प्रतिदिन के आवश्यक नित्य कर्म:
(खाना-पीना, हगना-मूतना, नहाना-धोना, सोना-जागना और पूजा करना)
बहुत से लेखक
अपने लिए लिखते है
और अधिकांश दूसरों के लिए
अब लोग इसलिए भी लिखते है कि
उनकी गिनती बुद्धिजीवियों में होगी,
कुछ लिखना चाहिए इसलिए लिखते है
कुछ के लिए खाली बैठे का शगल,
कुछ को पैसा, प्रसिद्ध और प्रतिष्ठा चाहिए,
कुछ को अमर होना है,
इसलिए.
मैं लिखना चाहता हूँ- लिख नहीं पाता,
हताश होकर :
दूसरों का लिखा पढ़ता हूँ,
यहाँ उदासी, उबासी और दुख घेर लेते है
क्योंकि-
कुछ अच्छा लिखा मिलता नहीं-
वही घिसी -पिटी बाते,
कहानी-कविता, व्यंग्य, मुहावरे और लेख.
हजारों बार की दुहराई हुई
वही पुरानी बाते.
बिना समझे वह क्यों है?
समर्थन, विरोध और कुछ तटस्थ.
कही ना कही होना चाहिए इसलिए है.
इसलिए मैं
अकारण लिख नहीं पाता,
अकारण पढ़ नहीं पाता,
अकारण सुन नहीं पाता.
आजकल खाली हूँ
और खाली दिमाग में
आने का इंतजार कर रहा हूँ शैतान का.