उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव परिणाम ने एक बार फिर यह तय किया कि यूपी में भाजपा सरकार बनाने जा रही है | इस परिणाम ने उस मिथक को तोड़ा कि उत्तर कांग्रेस राजनीति में अब तक कोई भी दल लागातार दूसरी बार सत्ता हासिल नही कर पायी वहीं वोट प्रतिशत के हिसाब से भी भाजपा के लिए यह ऐतिहासिक परिणाम रहा | हालांकि सीटों के मामले में भाजपा अपना पुराना 2017 वाला रिकार्ड नही दोहरा सकी वहीं समाजवादी पार्टी एक ससक्त विपक्ष के रूप में भाजपा के सामने खड़ी हुई जबकि बसपा और कांग्रेस को दोनों लिहाज से भारी नुकसान उठाना पड़ा |
भाजपा के पक्ष में इस चुनाव परिणाम में सबसे महत्वपूर्ण यूपी के दलित वोटरों की भूमिका मानी गयी | उतर प्रदेश में दलित वोटरों की आबादी 21.10 प्रतिशत है जिनमे जाटव 11.7 और गैर जाटव में पासी 3.3 कोरी 3.15 खटिक 1.5 बाकी अन्य दलित जातियां हैं | यह पहले से प्रतीत होता रहा है कि यूपी की सत्ता पर वही काबिज होगा जो इन दलित वोटरों को और यूपी के आरक्षित सीटों को साधेगा | 2007 में जब मायावती ने सत्ता प्राप्त की तब उन्होंने आरक्षित 84 सीटों में 62 जीती थी, वहीं 2012 में अखिलेश यादव की सरकार ने 58 आरक्षित सीटों को अपने पक्ष में किया था और 2017 में भाजपा की जब सरकार बनी तब उन्हें 70 सीटें प्राप्त हुई थी और समाजवादी पार्टी मात्र 7 सीटों पर सिमट गयी थी | इस बार के विधानसभा चुनाव में एक बार पुनः भाजपा गठबंधन ने 65 सीटों पर बढ़त बनाकर अपनी सरकार पुनः दोहरायी है |
यदि उत्तर प्रदेश के जिलावार दलित वोटरों की स्थिति को देखा जाये तो सबसे ज्यादा सोनभद्र में 41.92 प्रतिशत दलित वोटर हैं जहां इस बार के चुनाव में भाजपा ने सोनभद्र के सभी सीटों पर अपना कब्ज़ा जमाया है जिसमे इन दलित वोटरों की महत्वपूर्ण भूमिका रही | बाकी अन्य जिलों के आकड़े देखा जाए तो 30.64 प्रतिशत वाली उन्नाव, 28.07 प्रतिशत वाली झांसी, 25.78 दलित आबादी वाली महोबा, 25.76 प्रतिशत मिर्जापुर और 25 प्रतिशत दलित आबादी वाले ललितपुर जिले के सभी विधानसभा सीटें इस बार के चुनाव में भाजपा ने जीती है | इससे यह परिलक्षित होता है कि इस चुनाव में यूपी की 21 प्रतिशत आबादी वाले दलितों ने भाजपा गठबंधन के पक्ष में मतदान किया जबकि इन वोटरों का परम्परागत रुझान मायावती के लिए निरंतर रहा है लेकिन इस चुनाव में मायावती की उदासीनता और बसपा को प्राप्त मात्र 12 प्रतिशत वोट यह दर्शाते हैं कि जिस भाजपा के विचार को मनुवादी कहते हुए मायावती अपने दलित वोटरों का समर्थन प्राप्त करती रहीं हैं आज दलित वोटरों का एक बहुत बड़ा हिस्सा भाजपा के पक्ष में जा चूका है जिनमे पासी, धन्नौंजिया, कोल, कोरी, खटिक, वाल्मिकी, धनुक तथा अन्य दलित जातियां शामिल हैं | भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में उत्तर प्रदेश की दलित वोटरों का मतदान कोई अनायास घटना या मायावती की निष्क्रियता का परिणाम नही है | इन वोटरों के पास मायावती के विकल्प में पुरानी पार्टी कांग्रेस के तरफ भी जाने की संभावना हो सकती थी क्योकि आजादी के बाद से दलित जातियां कांग्रेस को वोट करती रहीं हैं और सरकार बनवाती रहीं हैं और समाजवादी पार्टी भी इन वोटरों को लेकर इच्छुक रही है | लेकिन भाजपा के भीतर यह कार्य 2014 से ही शुरू हो गया था जबकि आर एस एस के एजेंडे में यह 1983 के काल खंड से ‘सामाजिक समरसता मंच’ बनाकर दलितों को आकर्षित करने का प्रयास किया जाता रहा है | विशेषतौर पर संघ ने 2011 में दलित वर्ग के युवाओं को शाखाओं में लाने और उनके माध्यम से उनके परिवार तक पहुँचने और संपर्क करने का अभियान शुरू कर दिया था जिसका नाम उन्होंने ‘संघ को समझे’ दिया था | समरसता मंच के माध्यम से आर एस एस ने सामाजिक समरसता भोज शुरू किया | ये कार्यक्रम साप्ताहिक, पाक्षिक किया गया जिसमे वाल्मीकि, धनुक, सोनकर, माली, दुधिया, लोहार जैसी सेवा जातियों से जुड़े बुजुर्गो को सार्वजनिक आयोजन कर सम्मनित करने का अभियान चलाया | आर एस एस के द्वारा सामाजिक समरसता मंच के अखिल भारतीय संयोजक श्याम प्रसाद को अवध प्रान्त में समरसता अभियान के माध्यम से दलितों को जोड़ने का जिम्मा दिया गया | इसके अंतर्गत सार्वजिक कार्यक्रम में भीमराव आंबेडकर ,ज्योतिबा फुले और महात्मा बुद्ध की फोटो लगाकर दलितों को आकर्षित किया गया | इसी के अंतर्गत मेरठ में 25 हजार दलितों को बुलाया गया जिसमे आर एस एस प्रमुख मोहन भगवत ने नारा दिया कि ‘समरसता मंच के नाद से हम भर देंगे सारा त्रिभुवन’ | इसी कार्यक्रम में ‘स्वर गोविन्दम’ के नाम से दलित कलाकारों को जोड़ने का अभियान भी शुरू किया गया | भाजपा के पक्ष में दलितों को लाने के अपने अभियान के अंतर्गत आर एस एस ने ‘एक मंदिर एक शमशान एक जल स्रोत’ का भी नारा दिया | तेलंगाना के 200 गावों में इसे लागू करने का दावा किया गया कि सभी वंचित वर्गों के साथ इन आधार पर कोई भेद नहीं होगा और यूपी चुनाव में इस अभियान का दलितों के बीच बड़े स्तर पर प्रचार भी किया गया | हालांकि अम्बेडकरवादी बुद्धिजीवी आर एस एस के इस सामाजिक समरसता को सामाजिक न्याय के समनांतर नही मानते हैं | वे इसे एक प्रकार से सामाजिक परिवर्तन का यंत्र नही बल्कि चुनावी राजनीति का एक अभियान समझते हैं | जबकि संघ के दलित बुद्धिजीवी समाज सुधारक ज्योतिबा फुल्ले के ‘गुलाम गिरी’ के सवाल पर बहुजन में क्षत्रिय वर्ग को भी शामिल करते हैं और आर एस एस के भीतर पैर आदि छूने की मनाही को बड़े परिवर्तन से जोड़ते हैं और यह मानते हैं कि संघ में केवल चित्पावन ब्राहमण ही नहीं बल्कि दलित भी बड़ा संघ संचालक बन सकता है | इसके अलावा आर एस एस के भीतर दलित प्रचारकों जिनमे नेगी राम, दलित बुद्धिजीवी जिनमे जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रवेश चौधरी आदि और बौद्ध धर्म प्रचारक को और उसी वर्ग के डाक्टरों, प्रोफेसर को यूपी के भीतर दलितों के बीच जागरूकता अभियान के अंतर्गत लगाया गया था |
इसी कड़ी में भारत का दलित विमर्श के लेखक सूर्यकान्त वाली के दलितों को लेकर अपनी पुस्तक में उल्लेखित विचारों और लेखों का भी प्रचार किया गया जिसमे यह बताया गया कि भारतीय वेदों के जो प्रमुख मंत्राकर रहे हैं उनमे प्रमुख दलित रहें हैं, जिनमे स्कंद्पुरण लिखने वाले महिदास, महाभारत के वेदव्यास, प्रमुख ग्रंथो के सूक्त लिखने वाले कवास एलुस आदि दलित हीं रहे हैं | यह एक प्रकार से दलितों का हिंदुत्व्करण का प्रयास ही कहा जा सकता है जिसमे आर एस एस सफल रही | इसके अलावा भाजपा के स्तर पर दलित मतदाताओं को अपने पाले में करने के लिए जो कार्यक्रम चला उनमे बूथ मैनेजमेंट में दलित युवाओं की भागीदारी और सरकारी योजनाओं का लाभ भी रहा | प्रधानमंत्री मोदी ने यूपी चुनाव प्रचार के दौरान दलितों के लिए अपनी योजनाओं का प्रचार भी किया वहीं मुख्यमंत्री योगी ने दलितों की बस्तियों पर पुराने सरकार के कब्जे की बात प्रमुखता से रखी जो इनकी चुनावी रणनीति का एक प्रमुख हिस्सा रहा | भाजपा ने गरीब कल्याण स्कीम के माध्यम से दलित बस्तियों में राशन, जीवन और जीविका से जुडी योजनाओं और साफ जल पहुचाने की योजना भी सफल रही | इसके अलावा वंचित समाज के किशोरियों को मुफ्त सेनेटरी पैड की व्यवस्था और सुरक्षा ने भी दलितों को भाजपा के पक्ष में महत्वपूर्ण भूमिका रही | इन योजनाओं का प्रचार आर एस एस के सेवकों द्वारा ग्राम प्रमुख, लोक जागरण मंच और ‘कुटुंब प्रबोधन’ के माध्यम से दलितों के बीच हुआ | इसके अलावा भाजपा के नेताओं ने दलित प्रतीकों को भी अपनी चुनावी प्रचार का एक प्रमुख हिस्सा बनाया जिसमे विशेषकर वाराणसी में रविदास मंदिर में मुख्यमंत्री का पहुंचना और सार्वजनिक मंचों से रविदास की उक्तियों के माध्यम से दलितों में अपनी पहुँच बनाना रहा साथ ही दलितों के साथ खिचड़ी खाने जैसे सार्वजनिक भोज कार्यक्रम भी रहें | दलित विचारक भीमराव आंबेडकर के जन्मदिन पर सार्वजनिक दीपोत्सव का भी कार्यक्रम चलाया गया |
भाजपा ने यूपी के अन्दर जाटव वोटों में सेंधमारी के लिए प्रमुख नेता बेबी रानी मौर्य को लगाया साथ ही मेरठ से मेयर प्रत्याशी रहीं कांता कर्दम को विशेष जिम्मेदारी दी गयी | भाजपा ने अपने टिकट वितरण में भी उक्त वर्ग को विशेष हिस्सेदारी दी जिसका परिणाम उनके पक्ष में सकारात्मक रहा | यूपी चुनाव के परिणाम से यह तय है कि सत्ता इन जातियों के इर्द –गिर्द हीं घुमती है | जो इनको अपने पक्ष में रखेगा उसकी सरकार होगी | हालांकि यूपी के दलितों का वोट समाजवादी पार्टी को भी मिला है जो भाजपा के लिए आगामी चुनाव में चिंता का विषय हो सकती है | यूपी के दलित बाहुल्य कौशाम्बी, और आजमगढ़ जिले में समाजवादी पार्टी को बड़ी सफलता मिली है | आगामी 2024 के लोक सभा चुनाव में यदि भाजपा को यूपी में बढ़ी सफलता प्राप्त करनी होगी तो दलित मतदाताओं को अपने पक्ष में रखना होगा, लेकिन समाजवादी पार्टी की ससक्त उपस्थिति निश्चित रूप से चिंता का सबब होगी और भाजपा के रणनीतिकारों को सामाजिक समरसता के अभियान और कल्याणकारी योजनाओं के प्रचार की अपनी रणनीति को और धार देना होगा |