बिहार विधानसभान चुनाव के परिणाम के बाद बिहार मे एक बार फिर एनडीए को बहुमत मिल गया और भाजपा की चुनाव पूर्व संकल्पना के तहत नीतीश कुमार को पुनः शासन सत्ता प्राप्त हुई. हालांकि इस वर्ष का चुनाव परिणाम जिस रूप मे आया है उसमे एक बात पूरी तरह से स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि बिहार के चुनाव की जो मूल प्रकृति जातिवाद रही है वह फिर से मजबूत हुई है. राजनीतिक वैज्ञानिक रजनी कोठारी ने इसे सकारात्मक रूप से अपनी पुस्तक “भारत में राजनीति” में जातियों की राजनीति के रूप में लिखा है. चुनाव के दौरान महगठबंधन के मुख्यमंत्री उम्मीदद्वार ने 10 लाख नौकरियों की बात कही, उसपर बिहार के मतदाता ने अपनी जाति को ज्यादा त्तवोजों दी. सबसे महत्वपूर्ण बात यह दिखी की लोग स्थानीय स्तर पर अपने दल की अपेक्षा सजातीय उम्मीदवार के प्रति जायदा गोलबंद दिखें. कहलगावं विधानसभा मे वहाँ के यादव मतदाता ने गठबंधन से कॉंग्रेस के प्रत्याशी सदानंद सिंह के पुत्र को वोट न देकर सजातीय भाजपा के पवन यादव के पक्ष मे एक तरफा वोट किया. कमोवेश वही स्थिति पटना में नंदकिशोर यादव की जीत मे भी दिखी. यहाँ तक कि कैमूर के रामगढ़ विधानसभा मे राजद के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद के पुत्र सुधाकर सिंह के लड़ने बावजूद वहाँ के यादव मतदाता ने बहुजन समाज पार्टी से लड़े अंबिका सिंह यादव के पक्ष मे मत दिया. ऐसी स्थिति दर्जनो सीटों पर रहीं.

दूसरी महत्वपूर्ण समीकरण यह दिखा कि भले ही बिहार मे सभी राजनीतिक दल बड़े बड़े गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ रहे थे और चुनाव के समय एक दूसरे के प्रति जो विश्वास और संकल्प दिखा रहे थे, वह मतदान के समय नजर नहीं आया. एनडीए के भीतर भाजपा का जो कोर वोटर वर्ग था उसने अपने सहयोगी जदयु के पक्ष मे वोट ट्रान्सफर नही कराया और कमोवेश वही स्थिति महागठबंधन के अंदर भी देखी गयी जब राजद का मूल वोटर सहयोगी कॉंग्रेस के पक्ष मे वोट नहीं किया. हालांकि कॉंग्रेस का शीर्ष नेतृत्व ने बिहार चुनाव मे जमीनी स्थिति का बिना जायजा लिए महागठबंधन मे अपने लिए कमजोर सीटों पर समझौता किया और बची कसर उम्मीदवारों के कमजोर चयन ने भी पूरी कर दी. जब चुनाव परिणाम आया तो राजद ने कॉंग्रेस पर सीट हारने कि जिम्मेवारी डाल दी. यदपि कॉंग्रेस के लोगों का मानना है कि राजद को कॉंग्रेस का साथ रखना मजबूरी है नही तो अकेले चुनाव लड़ने पर 2010 वाली तस्वीर का डर भी था और इस स्थिति में कॉंग्रेस अकेले चुनाव लड़ती तो नीतीश के खिलाफ मतों और लालू राज की तस्वीर मे एक विकल्प के रूप मे कॉंग्रेस को और फायदा होता.

बिहार चुनाव के परिणाम के बाद एक बात और चरितार्थ हो रही है कि लोजपा का ऊपर से किसी भी गठबंधन मे न रहने के बावजूद भी अंदरखाने दोनों गठबंधन मे भाजपा और राजद से समझौता था. लोजपा ने भाजपा के टिकट से वंचित उम्मीदवारों को जदयु वाली सीट से टिकट देकर नीतीश को दर्जनो सीटों पर कमजोर किया ,जिसके उदाहरण दिनारा से मंत्री जयकुमार सिंह का हारना है तो सासाराम मे जदयु के अशोक सिंह का हारना. वही दूसरी ओर राघोपुर से राजपूत मतदाता का वोट काटने के लिए लोजपा से राजपूत प्रत्याशी देना ताकि तेजस्वी की सीट सुन्निचित हो सके. यदपि परिणाम के बाद यह तो तय हो गया कि सारे जातीय गणित के बावजूद जदयु को दो दर्जन सीटें हराने मे लोजपा सफल रही.

बिहार चुनाव परिणाम के बाद बिहार मे एक नया ट्रेंड ये देखने को मिला कि वैचारिक राजनीति की धुरी काफी मजबूती से उभर कर सामने आई. एक तरफ भाजपा के अगुआई मे दक्षिण पंथ का किला मजबूत हुआ तो दूसरी ओर लिब्ररेशन के नेतृत्व मे वामपंथ भी मजबूती से पुनः उभरा. बिहार मे इस बार के परिणाम मे भगवा पताका भी लहराई तो लाल झण्डा भी जोरदार तरीके से फहराया गया. इससे एक बात तो प्रतीत होती है कि भारत की सियासी जमीन पर वैचारिक प्रतिबद्धता की राजनीति भी बिहार के रास्ते मज़बूत हुई है. भाकपा माले लिब्रेशन ने दर्जन भर सीटें जीती तो माकपा और सीपीआई के जीत का प्रतिशत भी 80 रहा. वहीं भाजपा ने 74 सीटें प्राप्त कर अपना मजबूत दमखम दिखाया. इससे यह बात स्पष्ट है कि देश के भीतर विचारधारा की राजनीति का अपना नया महत्व कायम हुआ है. वैचारिक प्रतिबधता वाली दोनों दलों को काडर दल के रूप में देखा जाता रहा है साथ ही संगठनात्मक स्तर पर दोनों दल अपनी अपनी क्षेत्रों में मजबूत रहे हैं. दक्षिणपंथी भाजपा अपने विचारधारा, जिसमे राममंदिर, 370, और करिश्माई नेतृत्व के चेहरे के साथ मैदान में थी तो वामपंथी बेरोजगारी ,गरीबी, शोषण, वंचना, उपेक्षा के साथ मैदान में थे और कहीं न कहीं दोनों का अंडरकरंट चुनाव में था. वामपंथी पार्टियों ने विशेषकर अपने पुराने प्रभाव वाले भोजपुर, गया, जहानाबाद, अरवल में अच्छा प्रर्दशन किया तो भाजपा ने उतरप्रदेश के गोरखपुर सीमा से लगे चंपारण क्षेत्र में अधिकत्तम सीटें जीतीं.

बिहार चुनाव परिणाम में एक बात तय हो गयी की जिस यादव–मुस्लिम समीकरण को राजद के पक्ष में माना जाता था, वह कुछ हद तक कमजोर रहा है. विशेषकर सीमांचल में ओवैसी की पार्टी के पक्ष में वहां के मुसलमानों ने न केवल वोट ही दिया बल्कि पांच विधायको को विधानसभा में भेजकर एक मुस्लिम मतों में भरी टूट का सन्देश भी दिया है. इससे महागठबंधन को काफी नुकसान हुआ. अब बिहार के मुस्लिम मतदाता एक तरफ़ा वोट नही करता बल्कि वह विधानसभा सीटों पर अलग अलग मत दे रहा है. अब बिहार का मुसलमान अपने मत प्रतिशत के अनुसार अपने समुदाय के बीच से अपने धर्म के नेता के पीछे रहना ज्यादा मुनासिफ समझ रहा है. जैसा कि विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान ओवैसी ने उन्हें उक्त दर्शन का आभास कराया. एक और बात प्रतीत होती है कि मुस्लिम मतदाता अब अपनी असुरक्षा से ज्यादा अपनी आर्थिक उनयन को ज्यादा तरहीज देता हुआ दिख रहा है. बिहार में मुसलमानों के बीच उदारवादी विचार वाले मुस्लिम महागठबंधन को वोट देते दिखे गए तो वहीँ रेडिकल मिज़ाज के मुस्लिम मतदाता ओवैसी के पक्ष में मजबूती से दिखें. कमोवेश ऐसी स्थिति दलित वोटरों में भी दिखी ,अधिकतर दलित तो मायावती के प्रभाव में रहें तो कुछ आजाद की पार्टी के साथ बंट गए. हालाँकि दुसरे चरण के चुनाव के बाद यूपी में मायावती का भाजपा के पक्ष में समझौते का बिहार के दलितों में भी असर दिखा और दलितों ने सीमांचल में भाजपा के पक्ष में मतदान किया.

बिहार चुनाव परिणाम के बाद एनडीए और महागठबंधन के मत प्रतिशत में मामूली 0.3 का अंतर है. एनडीए को जहाँ 37.26 प्रतिशत मत मिला वहीँ महागठबंधन को 37.23 प्रतिशत मत मिला है. भले ही सीटों में 15 का अंतर दिखाई देता हो. इससे यह स्पष्ट दिखता है कि बिहार में जिस तरह से परिवर्तन के पक्ष में चल रही हवा की बात की जा रही थी, उसमे एनडीए को मिले मत यह बताते हैं कि उस बात में कोई विशेष दम नहीं रहा. यदि एनडीए में लोजपा के 6 प्रतिशत मत को जोड़ दिया जाये तो आकंडा 43 प्रतिशत के नजदीक दिखेगा और इससे सीटों का अनुमान एनडीए के पक्ष में 150 के करीब रहता. इससे यह प्रतीत होता है कि बिहार का चुनाव पूरी तरह से जातीय गोलबंदी के आसपास ही रहा और जिसने अधिकतम जातीय मतों को एक साथ साध लिया वह विजेता बना.

बिहार चुनाव परिणाम से एक बात तो स्पष्ट कि महागठबंधन और एनडीए, विशेषकर जदयू ने कुछ मोर्चे पर असफलता प्राप्त की. चुनाव के पहले तक मांझी, सहनी और उपेंद्र कुशवाहा महागठबंधन के साथ थे. कुछ सीटों को लेकर यदि राजद ने उन्हें अपने पाले में रखा होता तो निश्चित रूप से आज परिणाम महागठबंधन के पक्ष में रहता. यह बात तो सत्य है कि मांझी और सहनी ने जिस तरीके से सीटें जीती हैं और अपने वोट ट्रान्सफर कराये उसको लेकर चुनाव बाद महागठबंधन में जरुर चर्चा हो रही होगी. वहीँ लोजपा को अपने तरफ साधने में जदयू से भूल हो गयी. लोजपा ने सभी जदयू वाली विधानसभा में 10 से 15 हजार मत लाकर नीतीश कुमार को भारी नुकसान पहुँचाया.

बिहार की इस जाति की राजनीति ने वैसे नेताओं को महत्व नहीं दिया जो पिछले 5 वर्षो से जनता के बीच अपने काम से पहचान बनाये रहें. विशेषकर जनसमस्याओं को लेकर सड़क पर दिखने वाले राजेश रंजन उर्फ़ पप्पु यादव इसी जातीय समीकरण की भेंट चढ़ गए जो मधेपुरा में अपनी जमानत भी नही बचा पाए. उन्हें कुल मतों का मात्र 13 प्रतिशत मत मिला. सत्य ही कहा जाता है कि यह बिहार की भूमि चुनाव के समय जातीय संवेदनाओं में उलझ जाती है कि रिक्शा चलाने वाला भी राजनीतिक रूप से ज्यादा परिपक्व हो जाता है. यह तो सही है कि इस परिणाम को दोनों मोर्चे अपने-अपने पक्ष में सकारात्मक देख रहे हैं, और इसका राष्ट्रीय चुनाओं पर तो असर होगा ही, लेकिन बिहार का चुनाव परिणाम कभी भी एकतरफा नही रहा और सारे राष्ट्रीय समीकरण यहाँ ध्वस्त होते रहे हैं और बिहार की भूमि निरंतर नये चुनावी समीकरण गढ़ती रही है.

डा जयदेव पाण्डेय,

सहायक प्रोफ़ेसर, राजनीतिक विश्लेषक

पीएचडी ,राजनीति विज्ञानं ,बीएचयू

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